10 August, 2012

यादें-36 (जन्माष्टमी)



कल श्री कृष्ण जन्माष्टमी है। आनंद श्रीकांत के उत्साह से उत्साहित है। वह पुराने लोहे के बक्से से अपने खिलौने निकाल रहा है। चीनी मिट्टी के बने खिलौने, कच्ची मिट्टी के बने खिलौने, प्लॉस्टिक के खिलौने, छोटी-छोटी कारें, ट्रैफिक पुलिस और भी बहुत से खिलौने! उसने जब भगवान शंकर की मूर्ति निकाली तो आनंद खुशी से चीख पड़ा

इन जटाओं से फुहारा निकलता है न

हां, लेकिन मुझे नहीं आता।

मेरे भैया तो निकाल देते हैं! तुमने देखा नहीं था मेरे घर में पिछले साल? भैया कह रहे थे शिव जी की जटा से गंगा जी निकल रही हैं!

देखा था लेकिन मुझे नहीं आता। तुम्हें आता है? वे पहाड़ कैसे बनाते हैं ! जिसे कैलाश पर्वत की शक्ल देकर शिव जी को  रखते हैं?

झाँवाँ लाते हैं।

यह कहाँ मिलता है?

मैं जानता हूँ । वे राजघाट रेलवे स्टेशन से बोरे में भरकर लाते हैं। अरे, जो पत्थर का कोयला या ईंट जल जाती है उसी को तो झाँवाँ कहते कहते हैं। जहाँ ईँट का भट्टा हो वहाँ भी मिलता है ।

तुम्हारे पास तो बड़े भइया हैं, मैं तो अकेला हूँ। मेरे भी भैया होते तो तुम्हारे घर से अच्छी जन्माष्टमी सजाता। देखो! मेरे पास कितने सुंदर खिलौने हैं

अकेले क्यों हो? ताई नहीं हैं? और मैं भी तो हूँ ! चलो इस बार हम तुम दोनो मिलकर जन्माष्टमी सजायेंगे।

तुम अपने घर नहीं सजाओगे?

अपने घर ? उंह! भैया मुझे सजाने ही नहीं देते। वे और उनके गंदे वाले दोस्त! मुझे तो सिर्फ ये लाओ, वो लाओ, काम ही बताते रहते हैं। सड़क बनाना हो तो गंगाजी से बालू मैं लेकर आऊं, बगीचा बनाने के लिए रंगीन बुरादे चलनी से छान-छान कर मैं साफ करूँ, जब सजाने की बारी आये तो मुझे डांटकर भगा देते हैं। कहते हैं, तुम खराब कर दोगे।

यह बात है! तब तो बड़ा मजा आयेगा हम तुम दोनो मिलकर इस बार जन्माष्टमी मनाते हैं।

हाँ, हाँ, ठीक है। लेकिन यह तो सोचो कहाँ सजायेंगे?

नीचे, राम मंदिर में इतनी अच्छी जगह तो है ही।

हाँ, हाँ ठीक रहेगा। वह जगह तो हमेशा साफ-सुथरी रहती है।

ताई को बता दें ? (खुशी से दौड़कर बड़ी बहन को बुलाते हुए) ताई-ताई, इस बार आनंद भी हमारे साथ खिलौने सजायेगा।J

(श्री कांत से 5 वर्ष बड़ी दीदी भी इस खबर को सुनकर प्रसन्न हो गई।)

ठीक है लेकिन तुम लोग आपस में झगड़ना मत। आनंद के भैया उसे बुलाकर ले गये तो ?

उन्हें बतायेंगे ही नहीं। वो आयेंगे तो कह देना आनंद यहाँ नहीं है।

ठीक है, यह सही रहेगा।

चलो हम लोग रेलवे स्टेशन से झाँवाँ बीन कर लाते हैं।

सुनते ही दीदी डर गईं। उतनी दूर जाओगे! आई को पता चल गया तो बहुत मारेंगी ।

पता चलेगा तब न? और जब पहाड़ सजेगा, शंकर भगवान की मूर्ति से गंगा जी निकलेंगी तब देखकर कितनी खुश होंगी !

हाँ, हाँ, खूब मजा आयेगा।

ताई! तुम बिलकुल चिंता मत करो। हम लोग एक घंटे में आते हैं। तब तक तुम सभी खिलौनों की साफ-सफाई कर दो और एक लिस्ट बना कर रखना कि क्या-क्या लाना है।

ठीक है।

ताई की सहमति से खुश श्रीकांत और आनंद दोनो एक बड़ा सा बोरा लेकर निकल पड़े झाँवे की तलाश में। रास्ते में आनंद ने अपने घर से भैया की साइकिल भी पार कर दी। कभी आनंद साइकिल चलाता कभी श्रीकांत। रेलवे स्टेशन दोनो के घर से कम से कम चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर था। दोनो मित्र प्लेटफॉर्म से आगे जहाँ पटरियाँ शुरू होती हैं, एक-एक कर रेलवे इंजन से गिरने वाले जले हुए पत्थर के कोयले को खूब ठोंक बजाकर देखते और अपने झोले में ऐसे सहेजते मानो कोई जौहरी हीरे के टुकड़े सहेज़ रहा हो। समय का खयाल न रहा। होश तब आया जब झोला झाँवे से भारी हो चुका था।

चलो, इतना बहुत है। इससे अधिक हम ले भी नहीं जा सकते।

हाँ, हाँ चलो। शाम होने को आई और हम अभी पहाड़ ही बटोर रहे हैं।

जैसे तैसे साइकिल के कैरियर में बोरी लाद-फाँद कर दोनो घर पहुँचे तो थककर चूर हो चुके थे। पहुँचते ही ताई ने झिड़की लगाई...

आनंद! तुम्हारे भैया दो बार आकर पूछ चुके हैं। बड़ी देर लगा दी तुम दोनो ने?

उन्हें ढूँढने दो। देर तो हो ही गई लेकिन हमें अभी बहुत से काम करने हैं।

खिलौने तो मैने सभी सफा कर दिये लेकिन बहुत कम हैं। आई कह रही थीं अशोक के पत्ते भी लाने हैं। कंदब या कंरौदे की टहनियाँ, केले के छोटे-छोटे खंभे और फूल-मालाएं भी लानी हैं बाजार से। ये बीस रूपये दिये हैं आई ने। मैं तुम दोनो को अपने पास से भी बीस रूपये देती हूँ। कुछ खिलौने लेते आना। ट्रैफिक पुलिस की मुंडी टूटी हुई है। घोड़े वाला ट्रैफिक पुलिस, इक्के और कुछ प्लॉस्टिक की कुर्सियाँ भी लेते आना। मेरी सुंदर गुड़िया कहाँ बैठेगी?

ये सब तो कल सुबह ले आयेंगे। पहले आज झाँवे से एक कोने में पहाड़ बना दें और उस पर भोले बाबा को रखकर रामू काका को पकड़ लायें। वे किसी बिजली मिस्त्री से कहकर मूर्ति से फुहारे निकालने का इंतजाम कर देंगे। झालर भी सजा देंगे।

श्रीकांत चहका..हाँ यह ठीक रहेगा। चलो...

तीनो ने मिलकर देखते ही देखते सुंदर पहाड़ सजा दिये। कहीँ-कहीँ गुफाएं भी बना दीं जिसमें मिट्टी के शेर भी बिठा दिये। रामू काका ने फुहारे निकलने और पानी गिरने के लिए छोटा सा तालाब भी बना दिया। ताई ने रंगोली सजा दी। तब तक अंधेरा हो चुका था। आनंद ने कहा...

अब रात हो चुकी है। पिताजी के आने का समय हो चुका है। कल सुबह-सुबह गंगा जी से बालू ले आयेंगे सड़क बनाने के लिए। बगीचे के लिए बुरादे भी लाने हैं। मैं चलता हूँ।

श्रीकांत चहका..सुबह बहुत से काम करने हैं। जल्दी आ जाना।

आनंद जब घर अपने घर पहुँचा तो उसके भैया और उनके दोस्त वही सब कर रहे थे जो उसने श्रीकांत के घर किया था। उन्होंने सुंदर एक्वेरियम भी सजाई थी जिसमें रंगीन मछलियाँ तैर रही थीं। आनंद को देखते ही भैया का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा...

अभी आ रहे हो? कहाँ थे दिनभर? कल तुम्हें यहाँ झांकने भी नहीं दुंगा। यहाँ इतना सारा काम बिखरा पड़ा है और ये जनाब किसी शतरंज की अड़ी में बैठे शतरंज खेल रहे होंगे। रामनाथ हार गइलन,घोड़ा भागल टी री री री...

आनंद ने कोई जवाब नहीं दिया। दौड़कर ऊपर भाग गया और मन ही मन हंसता रहा। तब तक पिताजी आ गये। पिताजी के सामने आनंद को पीटने की हिम्मत किसी भाइयों की नहीं थी। सबसे छोटा होने के कारण उसे बड़े भाइयों की पिटाई और बाबूजी का प्यार दोनो भरपूर मिलता था। खाना खा कर जब वह बिस्तर में गया तो नींद उससे कोसों दूर थी। नींद आई तो कान्हाँ के सपने उसे दूसरी ही रंगीन दुनियाँ में ले गये। जहाँ गोपाल जी थे और थी बड़ों के मुंह सुनी उनकी अनगिन शरारतें...

सुबह जब पलकें खुलीं तो नीचे गली में श्रीकांत को चीखते हुए पाया। आनंद को बरामदे में देखते ही श्रीकांत चीखा...

अभी सोकर उठे हो !

तुम चलो मैं अभी नहा धो कर आता हूँ….

ठीक है। जल्दी आना......


बनारस की गलियों में घर-घर जन्माष्टमी सजाई जाती थी। ये वो दिन थे जब बड़ों का उत्साह और छोटों की दीवानगी देखते ही बनती थी। ऐसा लगता था जैसे समय कहीं ठहर सा गया है। किसी को कोई दूसरा काम है ही नहीं। सभी को बस एक ही फिक्र है...जन्माष्टमी कैसे सजाई जाय! बच्चे अभी भी सजाते हैं लेकिव पहले वाली फुरसत अब किसी के पास नहीं।

दोनो बाल-मित्र गंगा जी से बालू ले आये। चौखंभा स्थित विशाल गोपाल मंदिर के द्वार के आस पास लगने वाली दुकाऩों से माला-फूल, गोपाल जी के सुंदर वस्त्र, मोतियों की माला, केले के छोटे-छोटे खंभे, अशोक के पत्ते और ठठेरी बाजार से थोड़े बहुत खिलौने खरीद लिये जो वे खरीद सकते थे। उस दिन एक और घटना घटी। अनायास आनंद कि निगाह भीड़-भाड़ वाली गली में जमीन पर गिरे रूपयों पर पड़ी। उसने लपक कर उसे उठा लिया और आगे ले जाकर श्रींकात के सामने मुठ्ठी खोल दी...

इतने रूपये कहाँ से मिले?

गली में गिरे थे

कित्ते हैं?

गिनकर देखते हैं। पूरे 85 रूपये हैं। इतने रूपयों में बहुत से खिलौने आ जायेंगे।

हाँ, लेकिन आई को पता चल गया तो?

आई को कैसे पता चलेगा?

ताई बता देगी!

ताई को कैसे पता चलेगा?

पागल हो! वो खिलौने देखते ही समझ जायेंगी कि इत्ते ढेर सारे खिलौने बीस रूपये में नहीं मिल सकते..

कह देना कि आनंद अपने पिताजी से मांगकर लाया था।

हाँ, यह ठीक रहेगा। लेकिन यह झूठ तुम्ही बोलना!

हाँ, हाँ, बोल देंगे! कोई चोरी थोड़े न की है। समझ लेंगे भगवान ने हमारे लिए भेजे हैं।

दोनो खिलौने की दुकान के सामने खड़े हो गये। श्रीकांत खिलौने मोलाने लगा। आनंद कभी ललचाई निगाहों से खिलौनो को देखता, कभी कंपकपाई उंगलियों से मुठ्ठी ढीली करता-बंद करता। अचानक से बोल पड़ा...

श्रीकांत! गोपाल जी ने पूछा तो ?

गोपाल जी ने?

हां, हां, गोपाल जी ने...गोपाल जी ने पूछा कि तुमने दूसरे के पैसों से जन्माष्टमी क्यों मनाई तो ? तुमने आई से झूठ क्यों बोला तो...?

तुम ठीक कह रहे हो लेकिन आखिर हम इन पैसों का करें क्या? जहाँ से उठाया वहीं फिर से गिरा दें !

नहींsss चलो. वहीं चलते हैं...शायद कोई आदमी अपने गिरे पैसे ढूँढता हुआ वहाँ आये तो उसे दे देंगे।

चलो!

दोनो बड़ी देर तक ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा करते रहे जो पैसे ढूँढता दिख जाये लेकिन उन्हें कोई ना मिला।

अब क्या करें?

ये पैसे तो अब हम घर नहीं ले जा सकते। ऐसा करते हैं इसे इसी दुकानदार को दे देते हैं। कह देंगे कि कोई आदमी अपने पैसे ढूँढता हुआ यहाँ आये तो उसे दे देना। हमें यहीं गिरे मिले थे।

ठीक है। यही ठीक रहेगा।

लेकिन इस दुकानदार ने उसे नहीं दिये और खुद ही रख लिये तो ?

तो गोपाल जी उससे पूछें, हमसे तो बड़े पूछने चले आये थे ! हम सबका ठेका लिये हैं क्या ? :) 

दोनो ने पैसे दुकानदार को थमाये। अपनी झोली उठाई और घर की ओर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगे। जन्माष्टमी की सुंदर झांकी उनके नयनों में सजी थी जहाँ गोपाल जी की मुस्की देखते ही बनती थी...  



जारी....

09 June, 2012

यादें-35 (घोड़ा भागल टी री री री .......!)




रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री....! J

ब्रह्माघाट और उसके आसपास के मोहल्लों में यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई! मोहल्ले के फुरसतिया, पान घुलाकर चबूतरे पर बैठे, एक दूजे से कल हुई शतरंज की बाजी की चर्चा चटखारे ले ले कर, कर रहे थे।

काली कS लवंडा अइसन हरउलस रामनाथ के कि ओकर कुल हेकड़ी मिट्टी में मिल गइल!

रामनाथ कS का हाल हौ? दिखाई नाहीं देत हौ!

हाल का होई? दुकान बंद कर कत्तो गांजा पीयत होई।J

हा हा हा...मजा आ गयल। अब ऊ कई दिन न दिखाई देई।J

बनारस की तंग गलियाँ, गलियों में मुह्ल्ला ब्रह्माघाट, मुहल्ले की तिमुहानी में रामनाथ की दुकान, दुकान के सामने चबूतरा, चबूतरे पर शतरंज की अड़ी और अड़ी के बेताज़ बादशाह रामनाथ। आसपास के कई मोहल्लों में उनके खेल की धाक थी। एक आँख के रामनाथ, जाति से यादव, पेशे से मजदूर, शौक से शतरंज के खिलाड़ी, भाग्य से हीन, लक्ष्मी से दरिद्र, नाम मात्र के दुकानदार थे। दुबले-पतले, इकहरे- लम्बे, पेट-पीठ एकाकार, बड़ी-बड़ी गढ्ढेदार आखें, छोटी-छोटी चंगेजी दाढ़ी वाले रामनाथ को कोई शरारत से भी कनवाँ कहकर नहीं बुलाता था। उनकी दुकान, कबाड़ी के दुकान से बदतर थी। दुकान के टूटे-फूटे कनस्टर में बच्चों को बहकाने के लिए दो  पैसे के सामानो के अतिरिक्त और कुछ भी न था। ऐसी दुकान, जिसमें न तो सामान था न ग्राहक। यही कारण था कि नशा पत्ती(गांजा), दूध-मलाई और मित्र कल्लू नाऊ की सुंदर पत्नी पर भाव जमाने के लिए वे बेहिचक कुली गिरी कर लिया करते थे। रोटी तो उसका भाई खिला ही देता था। न बीबी न बच्चा।

आसपास के घरों में जब किसी को शहर से बाहर जाना होता, बस या ट्रेन पकड़नी होती, अपना सामान उठाने के लिए उसी को बुला भेजता। गलियाँ इतनी तंग हैं कि आज भी वहाँ रिक्शा या कोई और वाहन नहीं जा सकता। कोई बीमार पड़ गया तो उसे, या तो गोदी में या फिर खटोले में लादकर ही अस्पताल पहुँचाया जा सकता है। शतरंज खेल रहे रामनाथ को जब कोई आवाज देता तो यह भी जरूरी नहीं था कि वह शतरंज खेलना छोड़.."अब्बे आवत हई।," कहकर तुरंत उसके पीछे दौड़ पड़े! जाने वाले को, पहले ही रामनाथ से संपर्क कर समय बुक करवाना पड़ता था। वरना यह भी संभव था कि शाम को दो रूपये का गांजा और एक पाव मलाई के पुरवे का जुगाड़ हो गया हो और वह बुलाने वाले पर झपट पड़े, तोहरे बाप कS नौकर हई! जौन तुरंते तोहरे बुलावे पे पीछे-पीछे चल देई? जा अभहिन फुर्सत नाहीं हौ! देखत ना हउवा बाजी चउचक लड़ल हौ।J समय बुक रहने पर भी वह शतरंज खेलना बंद कर बुलाने वाले आदमी के दरवाजे पर समय से पहुँच कर खड़ा नहीं हो जाता था बल्कि अपनी मस्ती में शतरंज खेलता रहता था। हाँ, जब ट्रेन पकड़ने वाले के घर का कोई बालक दो चार बार आकर लौट जाता और उसका बाप आ कर उसके कपार पर क्रोध की मुद्रा में खड़ा हो चीखने लगता, नाहीँ जाएके रहल तS पहिले बता देता, ट्रेन छूटे कS समय हो गयल, अऊर तोहार खेल खतमे नाहीं होत हौ?” तब जाकर वह अब्बे आवत हई!” कहते हुए, मोहरे समेट कर प्लास्टिक के टेढ़े-मेढ़े पुराने गंदे से डिब्बे में जल्दी-जल्दी भरने लगता। जिसे ट्रेन पकड़नी होती वह रामनाथ को तब तक घूरता रहता जब तक कि वह मैली गंजी और लगभग धुल चुके लाल रंग का, पुराना, गंदा-सा अंगोछा कमर में कसते हुए, लगभग दौड़ने की मु्द्रा में, उसके घर की तरफ नहीं चल देता।J

अपनी खेल प्रतिभा से पूरे मोहल्ले में धाक जमाने वाले रामनाथ की हालत तब पतली होने लगी जब उसी के साथ खेलते 14-15 वर्ष के बालक ने उसे कड़ी टक्कर देनी शुरू की! लुण्डी गुरू, सियाराम, भैय्यो और उस दुकान पर खेलने आने वाले दुसरे खिलाड़ी अब रामनाथ का उसका मजाक उड़ान लगे।

चला आनंद आ गइलन! हो जाय एक बाजी !

हाँ, हाँ, हो जाय!

रामनाथ चिढ़कर चीखता..."इहाँ रण्डी कS नाच होत हौ? जउन आ गइला कपारे पर! हमे खेले के होई तS खेलबे करब! शतरंज शांति से खेले वाला खेल हौ। तू लोग बीच-बीच में टिपिर-टिपिर बोल-बोल के ई काली कS लौण्डा के चाल बतइबा, हमार माथा खराब करबा, अउर जब हम हार जाब तS हिजड़न मतिन ताली पीटे लगबS! कउनो बात भइल?”

नाहीं भाई! हम लोग न बोलल जाई। लुण्डी रामनाथ को मनाना शुरू किया।

हाँ,हाँ, केहू न बोली। जे बोली बड़ी मार मराई। अरे सारे! चुप रहे रे। भइयो ने सबको हड़काया।

हम चाय-पान भिजवावत हई!” सियाराम चहका।

दरअसल आनंद की प्रतिभा से उसकी रूह भीतर ही भीतर काँप चुकी थी कि यह लड़का मुझे हरा सकता है। कहीं मैं हार गया तो जो धाक मोहल्ले में जमी है, धूल में मिल जायेगी। लेकिन उस दिन सबकी मान मनौव्वल का असर यह हुआ कि वह खेलने को तैयार हो गया।

बाजी इतनी रोचक जमी कि किसी से रहा नहीं गया। आधे इधर तो आधे उधर होकर चाल बताने लगे। आनंद जितना शांत होकर चाल चलता, रामनाथ उतना ही हर चाल पर चिढ़ने लगता। रामनाथ की बाजी धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी। हार सन्निकट देखकर वह और भी धीरे-धीरे चाल चलने लगा। तभी नेने जी के घर से कोई लड़का आया, का हो रामनाथ! भैरवनाथ तक चलबा ? बाबूजी के ईलाहाबाद जायेके हौ। ढेर कS बोझ हो गयल हौ। हमसे अकेल्ले न उठी। चलता तनि रिक्शा तक पहुँचा देता। लेकिन तू त खेले में मस्त हउआ! बाबूजी कहले रहलन लेकिन हमहीं भुला गइली, तोहें पहिले नाहीँ बतउली। नेने जी के घर का बुलावा रामनाथ की फँसी बाजी के लिए बेहतरीन चाल बनकर आया।J

नाहीँ हो, अब्बे चलत हई! तोहरे बाबूजी बोलावें अउर हम न चली? अइसन कैसे हो सकSला। कहते हुए सब मोहरे झटके से उठाकर फटा-फट डिब्बे में ठूँसना शुरू कर दिया! सभी दर्शक दहाड़ने लगे, "अरे रे! ई का ? खेल तS पूरा करके गइले होता?

S संझा कS खर्चा तोहरे घरे से आई? पहिले रोजी फिर रोजा। पेट भरल रही तS शतरंज तS खेले के हइये हौ।  वैसे भी ई बाजी में कुछ न होत। चौ-मोहरी (शतरंज के देशी रूप में चार मोहरे शेष रहने पर बाजी ड्रा हुई मान ली जाती थी।) हो जात। कहते-कहते रामनाथ ने सभी मोहरे पलक झपकते रख दिये, भटाक-फटाक पल्लों की आवाज के साथ दुकान बंद की, एक अंगोछा छेदियल बनियाइन के ऊपर बायें काँधे पर डाला और नौ दो ग्यारह हो गया। सभी अवाक! ठगे से, उसे जाते देखते रह गये। J

उनकर हार एकदम पक्का रहल! तबे भाग गइलन। देखला नाहीं, एक घंटा से केतना धीरे-धीरे चलत रहलन ? खेलले होतेन त दुई चार चाल में उनकर मात होइये जात। तब तक लुण्डी गुरू भाग कर, घर से अपना शतरंज ले आये और वैसी ही बाजी सजा कर हर संभावित चालों को दिखा-दिखा कर, यह सिद्ध कर दिये कि खेल होता तो रामनाथ हार जाते। फिर क्या था! सभी ने हउरा(शोर) मचाना शुरू कर दिया, "रामनाथ हार गइलन!” यह खबर मोहल्ले में उस दिन के लिए ढाका पर भारतीय सेना का कब्जा से बड़ी खबर थी। गली के लड़के जिन्हें शतरंज खेलने का जरा भी शऊर नहीं था, यह बात अच्छे से जान गये कि रामनाथ हार गये। फिर क्या था ! लगे घूम-घूम कर गली-गली चीखने...रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... J


जारी.....

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नोटः चित्र गूगल बाबा से साभार।