10 October, 2011

यादें-34 ( हाई स्कूल का रिजल्ट )



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उन दिनो उत्तर प्रदेश में यू पी बोर्ड की हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट परीक्षा का परिणाम एक बड़ी खबर हुआ करती थी। दूसरे बोर्ड इतने प्रचलित नहीं थे। गली-मोहल्लों  के मध्यम वर्गीय परीवारों में तो लोग दिल थाम कर रिजल्ट की प्रतीक्षा किया करते, भले ही घर का कोई बच्चा परीक्षा नहीं दिया हो। रिश्तेदारों, अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चों पर भी खास निगाह रहती। परीक्षा परिणाम भी आज की तरह विषय वार, अंक सहित, नेट पर देखने की सुविधा नहीं थी। नेट क्या, उन दिनों फोन या टीवी का भी प्रायः नामोनिशान नहीं था। आज यू0पी0 बोर्ड परीक्षा 1976 का हाईस्कूल का रिजल्ट निकलने वाला था। जिनके घरों के बच्चे हाई स्कूल की परीक्षा दिये थे वे तो जानने के लिए उत्सुक थे ही, पूरा मोहल्ला रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहा था। घर से बाहर निकलते ही चाय पान की दुकान पर बैठे लोग पूछ बैठते..का हो ? आज रिजल्ट निकसे वाला हौ न..? देखा, जंगली कs का होला ! पास नाहीं भयल तs ओकर बपवा जहर खा लेई दूसरा कहता...काहे ऐसन कहत हउवा...? भगवान करे पास हो जाये! ओकर सांस तs बेटवा के रिजल्ट में अटकल हौ। ओकर सपना हौ कि जंगली इंजिनियर बने। देखा मुन्नवां कs का होला। बेचारा बड़ी कष्ट उठाके पढ़ले हौ।

मोहल्ले वाले दो ही बातें जानते थे...पास या फेल। प्रथम का स्वाद शायद तब तक उस मोहल्ले में लोगों ने नहीं चखा था। कभी कोई प्रथम श्रेणी में पास हुआ भी होगा तो लोगों को इसका ज्ञान नहीं था। दोपहर बीतते-बीतते अखबार वाला..हाईस्कूल..हाईस्कूल..हाईस्कलू का रिजल्ट चीखते हुए मोहल्ले से गुजरा तो मोहल्ले वाले जंगली और मुन्ना का रिजल्ट जानने के लिए बेताब हो उठे। परिणाम मोहल्ले के लोगों के लिए धमाकेदार था। जंगली प्रथम तो मुन्ना द्वितीय श्रेणी में पास हुआ था। जंगली के पापा की खुशी का ठिकाना न था। वे अखबार लेकर पूरे मोहल्ले में घूम-घूम कर अपने बेटे की तारीफों के पुल बांधते फिर रहे थे। उनका बेटा क्या था अलादीन का चिराग था। जो छू ले वही हो जाय, जो मांगो वही ला दे। वे सबसे गर्व से कहते...हे देखो, मेरा बेटा प्रथम श्रेणी में पास हुआ है। तुम देखना मैं उसे इंजिनीयर बनाउंगा..हे देखो, अब कोई माई का लाल रोक नहीं सकता। हे देखो...क्या गज़ब का नम्बर पाया है ! चबूतरे पर बैठे, पान घुलाये, मुँह फुलाये, बड़ी सी तोंद वाला सरदार जो बहुत देर से उनकी बातें सुन रहा था, अचानक से उठा और गली में किनारे पिच्च से पान थूक कर बोला...का कहत हउआ...! अभहिन तोहें नम्बर कैसे मालूम चल गयल ? तोहरे लइका कs फोटू छपल हौ का अखबारे में...? टॉप करे वाले 20 लइकन कs सूची देहले हौ..! एहमें तs जंगली कs कत्तो नाम नाहीं हौ !! कौनो पेसल अखबार खरीदले हउवा का कि जेहमें नम्बरो छपल हौ..? नाहीं तू सबके बुड़बक समझला का..? जंगली के पापा एक पल के लिए झिझके फिर शुरू हो गये...मार्कशीट नहीं मिला तो क्या..हे देखो, मैं जानता हूँ सब पेपर में डिक्टिंशन होगा मेरे बेटे का। तुम सब जलते हो मेरे बेटे से..हे देखो, पहले तो तुम लोग यह भी नहीं मानते थे कि मेरा बेटा फस्ट आयेगा..हे देखो, आया कि नहीं आया ? हे देखो, ओसेहीं नम्बर भी देख लेना। अखबार में फोटू भी छपेगा..! हे देखो, बहुत अच्छे नम्बर से पास हुआ है मेरा बेटा। मुन्ना भी उसके संग रहकर सेकेंड डिवीजन से पास हो गया। हे देखो, संगति का असर होता है। हे देखो...उसका भी कल्याण हो गया। सरदार के साथ-साथ सभी खड़े लोग उनका पुत्र प्रेम भौचक हो आँखें फाड़े देखते रह गये। सरदार बोले...कोई तोहरे बेटवा से नाहीँ जलत। सबके तोहरे बेटवा पे गर्व हौ। तोहार बेटवा मोहल्ला कs नांव ऊँचा कइले हौ..मगर तू जब ढेर हांके लगला तs सबकर सुलग के कलाबत्तू हो जाला। खाली भांषड़े झोकबा कि मिठाई-सिठाई भी आई राम भंडार से ? मिठाई की क्या बात है...हे देखो, मिठाई पर से आओ-जाओ...अभी मंगाता हूँ.....हे देखो, मिठाई खिलाने से कौन भागता है...? फस्ट आया है मेरा बेटा। उन्होने सभी को खूब मिठाई खिलाई और देर शाम तक पूरे मोहल्ले में जंगली के फस्ट आने और उनके पापा के मिठाई खिलाने की चर्चा का बाजार गर्म रहा। दूसरी ओर मुन्ना द्वितीय श्रेणी पा कर दुःखी था। उसे जंगली के पापा की गर्वोक्ति बहुत खल रही थी। वह अफसोस करने के सिवा और कर भी क्या सकता था। आनंद की माँ को इस बात का संतोष था कि इन परिस्थियों में भी मुन्ना का साल बर्बाद नहीं हुआ और वह द्वितीय श्रेणी में ही सही, पास हो गया।

 आनंद को कक्षा आठ में भी कक्षोन्नति मिल गई थी। वह भी नवीं में आ गया था। कुछ तो पढ़ाकू साथियों का संग, कुछ जंगली-मुन्ना की पढ़ाइयों का असर कि उसे भी लगने लगा था कि पढ़ाई एक ऐसी चिड़िया का नाम है जिसे पकड़े बिना उड़ा नहीं जा सकता। आनंद के घर में भी पढ़ाई का माहौल था लेकिन उसके सभी बड़े भाई पढ़ाई के मामले में कुछ विशेष नहीं कर पाये थे। आनंद के पिताजी भी सभी को पढ़ाते-पढ़ाते इतने बोर हो चुके थे कि उन्होंने आनंद से कभी यह नहीं कहा कि तुम्हें पढ़ाई के प्रति ज्यादा ध्यान देना चाहिए। एक तरह से वो उम्मीद छोड़ चुके थे। उन्हें पक्का यकीन हो चला था कि उनका यह बेटा भी अपने बड़े भाइयों की तरह नालायक है और कुछ खास नहीं कर सकता। मध्यम वर्गीय पिता जिनकी कई संताने होती हैं, वे अपनी प्रारम्भिक सतांनो पर ही जोर आजमाइश कर इतना टूट चुके होते हैं कि बाद के संतानो के लिए न उनके तन में शक्ति शेष बची रहती है न मन में। यह सच है कि बच्चे को जिधर ढाल दो उधर ढल जाता है लेकिन इस ढालने की प्रक्रिया में घर के साथ-साथ, बाहरी वातावरण का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। एक तरफ जंगली के पापा के जैसा दृढ़ प्रतिज्ञ पिता था तो दूसरी ओर मुन्ना जैसा परिस्थिति जन्य कठोर मना दुखी, अनाथ बालक। एक तरफ बड़े भाइयों की असफलता तो दूसरी ओर मोहल्ले का वातावरण। एक तरफ पढ़ाई ही सब कुछ है का हो रहा ज्ञान तो दूसरी ओर मन में हिलोरें मारतीं जासूसी उपन्यासों, कहानियों, क्रिकेट, शतरंज जैसे खेलों के प्रति गहरे अनुराग के साथ साथ बचपन की अनगिन शरारतों का शोर। आनंद पर चतुर्दिक मानसिक हमला बदस्तूर जारी था। आनंद की शिक्षा घर के अनुशासन से परे एक स्वतंत्र वातावरण में हो रही थी, जिस पर परिवार वालों का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं था। बनना बिगड़ना सब उसी पर निर्भर था।
( जारी.....)