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समय सदैव एक सा नहीं होता। आदमी जब समझता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, तभी अनायास कुछ ऐसा हो जाता है कि वह अपना सर धुनने लगता है। जब चिड़ियों की चहचहाहट में मधुर संगीत का आनंद ले रहा होता है तभी एक मोर चीखता हुआ गुजर जाता है। जब ‘पूनम का चाँद’ प्यारा, बहुत प्यारा लग रहा होता है तभी काले बादलों का जत्था आ कर उसे पूरी तरह से ढक लेता है। जब शांत पहाड़ी झील में नौका विहार का आनंद ले रहा होता है तभी तूफान पूरे वातावरण को यकबयक करूण क्रंदन में बदल देता है। शांत जल की नन्हीं-नन्हीं लहरियाँ, ऊँची-ऊँची लहरों में परिवर्तित हो जाती हैं । ‘चप्पू’ चलाने वाले युवा जोड़ों का मन भयाक्रांत हो जाता है। एक पल पहले जिस चप्पू को वे हौले-हौले, ‘चुपुक-चुपुक’ की आवाज के साथ मधुर गीत गुनगुनाते हुए, भाव विभोर हो चला रहे थे वही ‘चप्पू’ दूसरे ही पल जीवन रक्षा के लिए ‘छपाक-छपाक’ की आवाज के साथ भाजने लगते हैं। छण भर में जीवन के संगीत बदल जाते हैं। हर्ष की बात यह है कि ये अंधेरे, काले बादल, ये तूफान, हमेशा नहीं रहते। काले बादलों से निकलकर चाँद, और भी खूबसूरत दिखाई देने लगता है। तूफान थम जाने के बाद, शांत जल की लहरियों को, चप्पू चला चलाकर थके हाथ, कितनी उपेक्षा से देखते हैं ! उँह ! चले थे हमसे मुकाबला करने ! मन मयूर नंगा हो नाचने लगता है..हवा अच्छी लगने लगती है, कोयल गाती सी प्रतीत होती है, पहाड़ हँसते से लगते हैं । सब कुछ पल भर में बदल जाता है। शायद यही जीवन है। शायद यही आनंद है।
मुन्ना के साथ भी नीयति ने क्रूर मजाक किया। उसके बाबा की मृत्यु क्या हुई, पूरे घर में वज्रपात ही हो गया। पिता को व्यापार में भयंकर घाटा लगा। कुछ ही महीनों में सब कुछ चला गया । वे इसका गम सहन नहीं कर सके और शराब के आदी हो गये। मुन्ना की माँ अपने जुड़वाँ, दुधमुहें बच्चों को सीने से लगाए, बरामदे पर खड़े हो आनंद की माँ से अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते हिचकियाँ ले ले कर रोने लगतीं तो वहीं पास खड़े सब सुन रहे आनंद की आँखें भी आसुओं से भर जातीं। मुन्ना के पापा घर खर्च चलाने के लिए फिर अपना पुराना कंपाउडरी वाला पेशा करने लगे। परचून की दुकान चलाना उनके वश का नहीं था। बाबा की मृत्यु के बाद दुकान संभालने वाला कोई नहीं मिला तो दुकान बंद हो गई। कुछ ही दिनों में दुकान का राशन-पानी भी खतम हो गया। थकहार कर मुन्ना की माँ ने उस दुकान को किराए पर उठा दिया। जिसमें शर्मा जी ने अपनी नई दुकान खोल ली।
क्रूर समय ने मुन्ना का बचपन उससे एक झटके में छीन लिया था। कहाँ तो बाबा के दुकान से उड़ाए पैसों से मनाया जाने वाला निस दिन का आनंद और कहाँ रोटी के लाले। कहाँ तो जुबान से निकलते ही पापा का फरमाइश पूरा करने का संकल्प, कहाँ देर रात, शराब के नशे में चूर, घर आते पापा का वहशीयाना अंदाज। बचपन खून के आँसू रोता, हर पल मरता जा रहा था। समय बदल चुका था, पापा बदल चुके थे और बदले हालात में पूरी तरह बदल चुका था मुन्ना।
एक दिन विशाल आनंद के पास दौड़ा-दौड़ा आया….सुना तुमने ? मुन्ना का घर बिक गया !
क्या ! उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ।
हाँ। विशाल बोला....उसके पापा ने ढेर सारा कर्ज ले लिया था। कर्ज चुकाने के लिए उसके पापा ने अपना मकान बेच दिया।
यह खबर सुनकर आनंद को गहरा सदमा लगा। उसने अपने ही घर से मुन्ना को आवाज दी। मुन्ना आया और रो-रो कर बताने लगा....घर बेचकर पापा गांव चले गये हैं। हमको भी ले जाना चाहते हैं मगर हमने साफ कह दिया कि मेरी 10वीं की परीक्षा सर पर है। हमको कहीं नहीं जाना। आपको जहां जाना हो अम्मा के साथ चले जाओ।
तुम कहाँ रहोगे ?
मैने जंगली के पापा से बात कर ली है। हम उसी के घर में रहकर पढ़ाई पूरी करेंगे। मुन्ना की बात सुनकर दोनो दुःखी हो गये। दोनो ने महसूस किया कि मुन्ना अब बहुत बड़ा हो गया है।
कुछ ही दिनो में मुन्ना का घर खाली हो गया। पापा गये, अम्मा गईं, भाई-बहन गये और वह खुद जंगली के घर रहने के लिए चला गया। आनंद का प्लास्टर भी कट चुका था। उसने दोनो पैरों से चलना शुरू कर दिया था। बात आई-गई हो चुकी थी। अब वह स्कूल भी जाने लगा था। आठवीं के छात्र आनंद का मन अभी भी कोर्स की किताबों से ज्यादा कहानी की किताबों में ही लगा रहता। पढ़ाई के नाम पर स्कूल जाना ही बहुत था मगर बहुत दिनो से स्कूल न जाने के कारण मजबूरी में उसे भी दोस्तों की कापियाँ ला कर घर में काम पूरा करना पड़ता। आते-जाते उसकी टक्कर मुन्ना से हो जाती जो अब बहुत कम बोलता था। 003 नामक जासूसी संस्था, अतीत के गर्त में समा चुकी थी। मुन्ना के मुख पर हमेशा छाई रहने वाली हँसी, गहरी उदासी में परिवर्तित हो चुकी थी।
कोई ऐसे ही किसी को आश्रय नहीं देता। दया में भी स्वार्थ छुपा होता है। जहाँ जंगली के पापा ने मुन्ना को रहने के लिए ठिकाना दिया, दो वक्त की रोटी दी, वहीं वे उससे घर का ढेरों काम करवाते। सुबह-सबेरे दोनो हाथों में बाल्टी ले, जब मुन्ना सरकारी नल से पानी भर-भर कर ला रहा होता तो आनंद से निगाहें मिलते ही मारे शर्म के, सर झुका कर बगल से गुजर जाता। उसका मौन, उदास चेहरा, दिन भर आनंद को कचोटता रहता। उसे यह सोचने को मजबूर करता कि क्या वाकई पढ़ाई इतनी जरूरी है? मुन्ना क्यों नहीं चला जाता अपने गाँव? क्यों सहता है यह सब? क्या वह भी बड़ा होकर इंजीनियर बनना चाहता है? वह अपनी माँ से मुन्ना के दुःख के बारे में बातें करता। आनंद की माँ को भी मुन्ना का कष्ट सहन न होता। आनंद के पिता के डर से वह यह तो नहीं कह सकती थीं कि यहीं आकर रहो मगर प्रायः बुलाकर खाना खिला दिया करतीं।
एक दिन मुन्ना जब आनंद के साथ खाना खा रहा था आनंद ने पूछा......
तुम गाँव क्यों नहीं चले जाते ?
पहले तो मुन्ना ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन बार-बार पूछने पर लगभग चीखते हुए बोला....
कैसा गाँव? कौन सा गाँव? मेरा कोई गाँव नहीं है। मेरी माँ नाना के घर रहती हैं। मैने पापा को रेलवे प्लेटफॉर्म पर भिखारियों के साथ बैठकर खाना खाते देखा है ! सुना तुमने..? उन्होने अपना सब पैसा जुआ और शराब में उड़ा दिया है ! मैं सबसे झूठ बोलता हूँ कि मेरे पापा गाँव चले गये हैं ! दुबारा मत पूछना। एक बात और तुमसे कहे देता हूँ.....तुम देखना ! मैं खूब पढ़ूँगा। अपनी पढ़ाई पूरी कर ढेर सारा पैसा कमाउँगा। बड़ा सा घर बनाउँगा जिसमें सब होंगे.....पापा, अम्मा, भाई, बहन। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रोने लगा। रोते-रोते आधी थाली बीच में ही छोड़कर जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोने लगा।
आनंद की माँ ने उसे बहुत समझाया, शाबाशी दी और कहा कि भगवान जरूर तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे। भगवान उसी के साथ होते हैं जो साहस से मुश्किलों का सामना करते हैं। तुम एक बहादूर बेटे हो। तुम्हारे पापा बुरे आदमी नहीं हैं। समय ने उनको यह दिन दिखाया है। तुम मन छोटा मत करो। मन लगा कर पढ़ाई करो। इम्तहान खत्म करो फिर जाकर उनको ले आना। तुम चाहो तो यहीं रह सकते हो। यह तुम्हारा ही घर है। मैं भी तुम्हारी माँ जैसी हूँ। आनंद के पिता जी से बात कर लुंगी। वे कुछ नहीं कहेंगे।
आनंद की माँ ने उसे बहुत समझाया, शाबाशी दी और कहा कि भगवान जरूर तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे। भगवान उसी के साथ होते हैं जो साहस से मुश्किलों का सामना करते हैं। तुम एक बहादूर बेटे हो। तुम्हारे पापा बुरे आदमी नहीं हैं। समय ने उनको यह दिन दिखाया है। तुम मन छोटा मत करो। मन लगा कर पढ़ाई करो। इम्तहान खत्म करो फिर जाकर उनको ले आना। तुम चाहो तो यहीं रह सकते हो। यह तुम्हारा ही घर है। मैं भी तुम्हारी माँ जैसी हूँ। आनंद के पिता जी से बात कर लुंगी। वे कुछ नहीं कहेंगे।
माँ की बातें सुनकर मुन्ना का मन कुछ हल्का हुआ। देर तक सुबकता रहा। हाँ..हूँ करता रहा । कुछ देर बाद आनंद को गहरे सन्नाटे में छोड़कर, वहाँ से उठकर चला गया। बिचारा आनंद क्या जाने कि जिसके सर पर दुखों का पहाड़ टूट पड़े, उसे प्राणों से प्यारे मित्र की सच्ची संवेदना भी ज़हर लगती है।
( जारी.....)