16 June, 2011

यादें-33 ( समय की मार और सिसकता बचपन )


समय सदैव एक सा नहीं होता। आदमी जब समझता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, तभी अनायास कुछ ऐसा हो जाता है कि वह अपना सर धुनने लगता है। जब चिड़ियों की चहचहाहट में मधुर संगीत का आनंद ले रहा होता है तभी एक मोर चीखता हुआ गुजर जाता है। जब पूनम का चाँद प्यारा, बहुत प्यारा लग रहा होता है तभी काले बादलों का जत्था आ कर उसे पूरी तरह से ढक लेता है। जब शांत पहाड़ी झील में नौका विहार का आनंद ले रहा होता है तभी तूफान पूरे वातावरण को यकबयक करूण क्रंदन में बदल देता है। शांत जल की नन्हीं-नन्हीं लहरियाँ, ऊँची-ऊँची लहरों में परिवर्तित हो जाती हैं । चप्पू चलाने वाले युवा जोड़ों का मन भयाक्रांत हो जाता है।  एक पल पहले जिस चप्पू को वे हौले-हौले, चुपुक-चुपुक की आवाज के साथ मधुर गीत गुनगुनाते हुए, भाव विभोर हो चला रहे थे वही चप्पू दूसरे ही पल जीवन रक्षा के लिए छपाक-छपाक की आवाज के साथ भाजने लगते हैं। छण भर में जीवन के संगीत बदल जाते हैं। हर्ष की बात यह है कि ये अंधेरे, काले बादल, ये तूफान, हमेशा नहीं रहते। काले बादलों से निकलकर चाँद, और भी खूबसूरत दिखाई देने लगता है। तूफान थम जाने के बाद, शांत जल की लहरियों को, चप्पू चला चलाकर थके हाथ, कितनी उपेक्षा से देखते हैं ! उँह ! चले थे हमसे मुकाबला करने मन मयूर नंगा हो नाचने लगता है..हवा अच्छी लगने लगती है, कोयल गाती सी प्रतीत होती है, पहाड़ हँसते से लगते हैं । सब कुछ पल भर में बदल जाता है। शायद यही जीवन है। शायद यही आनंद है।

मुन्ना के साथ भी नीयति ने क्रूर मजाक किया। उसके बाबा की मृत्यु क्या हुई, पूरे घर में वज्रपात ही हो गया। पिता को व्यापार में भयंकर घाटा लगा। कुछ ही महीनों में सब कुछ चला गया । वे इसका गम सहन नहीं कर सके और शराब के आदी हो गये। मुन्ना की माँ अपने जुड़वाँ, दुधमुहें बच्चों को सीने से लगाए, बरामदे पर खड़े हो आनंद की माँ से अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते हिचकियाँ ले ले कर रोने लगतीं तो वहीं पास खड़े सब सुन रहे आनंद की आँखें भी आसुओं से भर जातीं। मुन्ना के पापा घर खर्च चलाने के लिए फिर अपना पुराना कंपाउडरी वाला पेशा करने लगे। परचून की दुकान चलाना उनके वश का नहीं था। बाबा की मृत्यु के बाद दुकान संभालने वाला कोई नहीं मिला तो दुकान बंद हो गई। कुछ ही दिनों में दुकान का राशन-पानी भी खतम हो गया। थकहार कर मुन्ना की माँ ने उस दुकान को किराए पर उठा दिया। जिसमें शर्मा जी ने अपनी नई दुकान खोल ली।

क्रूर समय ने मुन्ना का बचपन उससे एक झटके में छीन लिया था। कहाँ तो बाबा के दुकान से उड़ाए पैसों से मनाया जाने वाला निस दिन का आनंद और कहाँ रोटी के लाले। कहाँ तो जुबान से निकलते ही पापा का फरमाइश पूरा करने का संकल्प, कहाँ देर रात, शराब के नशे में चूर, घर आते पापा का वहशीयाना अंदाज। बचपन खून के आँसू रोता, हर पल मरता जा रहा था। समय बदल चुका था, पापा बदल चुके थे और बदले हालात में पूरी तरह बदल चुका था मुन्ना।

एक दिन विशाल आनंद के पास दौड़ा-दौड़ा आया….सुना तुमने ? मुन्ना का घर बिक गया !

क्या ! उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ।

हाँ। विशाल बोला....उसके पापा ने ढेर सारा कर्ज ले लिया था। कर्ज चुकाने के लिए उसके पापा ने अपना मकान बेच दिया।

यह खबर सुनकर आनंद को गहरा सदमा लगा। उसने अपने ही घर से मुन्ना को आवाज दी। मुन्ना आया और रो-रो कर बताने लगा....घर बेचकर पापा गांव चले गये हैं। हमको भी ले जाना चाहते हैं मगर हमने साफ कह दिया कि मेरी 10वीं की परीक्षा सर पर है। हमको कहीं नहीं जाना। आपको जहां जाना हो अम्मा के साथ चले जाओ।

तुम कहाँ रहोगे ?

मैने जंगली के पापा से बात कर ली है। हम उसी के घर में रहकर पढ़ाई पूरी करेंगे। मुन्ना की बात सुनकर दोनो दुःखी हो गये। दोनो ने महसूस किया कि मुन्ना अब बहुत बड़ा हो गया है।

कुछ ही दिनो में मुन्ना का घर खाली हो गया। पापा गये, अम्मा गईं, भाई-बहन गये और वह खुद जंगली के घर रहने के लिए चला गया। आनंद का प्लास्टर भी कट चुका था। उसने दोनो पैरों से चलना शुरू कर दिया था। बात आई-गई हो चुकी थी। अब वह स्कूल भी जाने लगा था। आठवीं के छात्र आनंद का मन अभी भी कोर्स की किताबों से ज्यादा कहानी की किताबों में ही लगा रहता। पढ़ाई के नाम पर स्कूल जाना ही बहुत था मगर बहुत दिनो से स्कूल न जाने के कारण मजबूरी में उसे भी दोस्तों की कापियाँ ला कर घर में काम पूरा करना पड़ता। आते-जाते उसकी टक्कर मुन्ना से हो जाती जो अब बहुत कम बोलता था। 003 नामक जासूसी संस्था, अतीत के गर्त में समा चुकी थी। मुन्ना के मुख पर हमेशा छाई रहने वाली हँसी, गहरी उदासी में परिवर्तित हो चुकी थी।

कोई ऐसे ही किसी को आश्रय नहीं देता। दया में भी स्वार्थ छुपा होता है। जहाँ जंगली के पापा ने मुन्ना को रहने के लिए ठिकाना दिया, दो वक्त की रोटी दी, वहीं वे उससे घर का ढेरों काम करवाते। सुबह-सबेरे दोनो हाथों में बाल्टी ले, जब मुन्ना सरकारी नल से पानी भर-भर कर ला रहा होता तो आनंद से निगाहें मिलते ही मारे शर्म के, सर झुका कर बगल से गुजर जाता। उसका मौन, उदास चेहरा,  दिन भर आनंद को कचोटता रहता। उसे यह सोचने को मजबूर करता कि क्या वाकई पढ़ाई इतनी जरूरी है? मुन्ना क्यों नहीं चला जाता अपने गाँव? क्यों सहता है यह सब? क्या वह भी बड़ा होकर इंजीनियर बनना चाहता है? वह अपनी माँ से मुन्ना के दुःख के बारे में बातें करता। आनंद की माँ को भी मुन्ना का कष्ट सहन न होता। आनंद के पिता के डर से वह यह तो नहीं कह सकती थीं कि यहीं आकर रहो मगर प्रायः बुलाकर खाना खिला दिया करतीं।

एक दिन मुन्ना जब आनंद के साथ खाना खा रहा था आनंद ने पूछा......

तुम गाँव क्यों नहीं चले जाते ?

पहले तो मुन्ना ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन बार-बार पूछने पर लगभग चीखते हुए बोला....

कैसा गाँव? कौन सा गाँवमेरा कोई गाँव नहीं है। मेरी माँ नाना के घर रहती हैं। मैने पापा को रेलवे प्लेटफॉर्म पर भिखारियों के साथ बैठकर खाना खाते देखा है ! सुना तुमने..? उन्होने अपना सब पैसा जुआ और शराब में उड़ा दिया है ! मैं सबसे झूठ बोलता हूँ कि मेरे पापा गाँव चले गये हैं ! दुबारा मत पूछना। एक बात और तुमसे कहे देता हूँ.....तुम देखना ! मैं खूब पढ़ूँगा। अपनी पढ़ाई पूरी कर ढेर सारा पैसा कमाउँगा। बड़ा सा घर बनाउँगा जिसमें सब होंगे.....पापा, अम्मा, भाई, बहन। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रोने लगा। रोते-रोते आधी थाली बीच में ही छोड़कर जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोने लगा। 

आनंद की माँ ने उसे बहुत समझाया, शाबाशी दी और कहा कि भगवान जरूर तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे। भगवान उसी के साथ होते हैं जो साहस से मुश्किलों का सामना करते हैं। तुम एक बहादूर बेटे हो। तुम्हारे पापा बुरे आदमी नहीं हैं। समय ने उनको यह दिन दिखाया है। तुम मन छोटा मत करो। मन लगा कर पढ़ाई करो। इम्तहान खत्म करो फिर जाकर उनको ले आना। तुम चाहो तो यहीं रह सकते हो। यह तुम्हारा ही घर है। मैं भी तुम्हारी माँ जैसी हूँ। आनंद के पिता जी से बात कर लुंगी। वे कुछ नहीं कहेंगे।

माँ की बातें सुनकर मुन्ना का मन कुछ हल्का हुआ। देर तक सुबकता रहा। हाँ..हूँ करता रहा । कुछ देर बाद आनंद को गहरे सन्नाटे में छोड़कर, वहाँ से उठकर चला गया। बिचारा आनंद क्या जाने कि जिसके सर पर दुखों का पहाड़ टूट पड़े, उसे प्राणों से प्यारे मित्र की सच्ची संवेदना भी ज़हर लगती है। 
( जारी.....)

12 June, 2011

यादें-32 ( लंगड़े की शैतानी )


एक तो दर्द का एहसास ऊपर से पिताजी का गुस्सा। बिस्तर पर लेटे-लेटे आनंद कभी उस चमकीले रिक्शे को कोसता जिसके चक्कर में यह दुर्घटना हुई, कभी अपने पर सशंकित रहता कि अब शायद वह कभी व्यायाम शाला नहीं जा पायेगा ! व्याययाम शाला नहीं जा पायेगा तो बड़ा जासूस कैसे बनेगा चमकीली दिखने वाली चीज जीवन में अंधकार भी लेकर आ सकती है, यह वह जान चुका था। ठोकर इंसान को सबक सिखाती तो है पर यह क्षणिक ही होता है। लोभ और चित्त की चंचलता उसके सीखे सबक को वैसे ही मिटा देती है जैसे स्मशान से लौटने के तुरंत बाद हम यह भूल जाते हैं कि जीवन नश्वर है। साथ कुछ नहीं जाता। शेष रह जाते हैं तो सिर्फ व्यक्ति के कर्म।

कुछ दिनो बाद जब बाहरी जख्म ठीक हुआ, आनंद के दाहिने पैर में प्लॉस्टर लग गया। आनंद के पैर की हड्डी क्या टूटी, उसका जीवन ही बदल गया। कहाँ रोज-रोज की धमाचौकड़ी, कहाँ घर का वीराना। प्रायः कमरे में लेटा वह घूमते सीलिंग फैन को देखा करता । डाक्टर ने पैर सीधा रखने व हिलाने-डुलाने से मना किया था। कुछ दिनो तक तो यह चलता रहा मगर धीरे-धीरे आनंद एक पैर से लंगड़ाता घर की सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने लगा। पिताजी के ऑफिस जाते ही उसके साथी आ धमकते। घर की छत पर अपने मित्रों की मदद से एक सुराख बना दिया था, जिसमें वे कंच्चे खेला करते थे। इधर पिताजी दफ्तर गये उधर उसके साथी आ जाते और सब मिलकर देर तक कंच्चे खेला करते।

शनीवार का दिन था। आनंद अपने मित्रों के साथ कंच्चे खेलने में मशगूल था। शनीवार के दिन दफ्तर में हॉफ डे हुआ करता था। पिताजी दफ्तर से जल्दी घर आ गये। खेल की धुन में आनंद को पता ही नहीं चला कि आज शनीवार है। इसका ज्ञान उसे तब हुआ जब पिताजी क्रोध से तमतमाये, हाथ में छड़ी लिये, साक्षात शनी बन उसके सर पर सवार हो गये। धनुष यज्ञ में जैसे परशुराम को देखकर बड़े-बड़े वीर पलायित हो गये थे, वैसे ही पिताजी को देखते ही आनंद के मित्र जहाँ से रास्ता मिला वहीं से भाग लिये। कोई छत डाक गया, तो कोई सीढ़ी कूद गया। मगर हाय ! आनंद कहां जाता ? उस दिन उसकी जो पिटाई हुई कि उसे लगा अब तो सारे शरीर में प्लास्टर बंधवाना पड़ेगा। ज्यादा क्रोध तो पिताजी को छत में सुराख देखकर आया जिसे वे हर वर्ष, बरसात से पहले, अपनी गाढ़ी कमाई से न चूने लायक बनवाते थे। उस दिन की पिटाई के बाद तो आनंद के मित्रों का उसके घर आऩा लगभग बंद ही हो गया। हाँ, बरामदे या छत पर कभी दिख जाय तो घटना को याद कर हंसते हुए पूछते..."का लंगड़ ! ठीक हो अब मत खेलना बेटा।" उनकी हा..हा..ही...ही ..आनंद के तन बदन में आग लगा देती। बचपन की दोस्ती जितनी संवेदनशील होती है उतना ही इस एहसास से अनभिज्ञ कि हमारे उपहास दूसरों को कितनी पीड़ा दे सकते है हाँ, मुन्ना अक्सर उसके घर आया करता जिसके सहारे वह किताबें पढ़ता रहता।

एक दिन उसके बड़े भाई श्रद्धानंद अपने मित्रों के साथ घर आये और कमरे में बैठकर शतरंज खेलने लगे। यह खेल उसे बड़ा ही रोचक लगा। कुछ ही दिन में भैया को खेलते देख-देख कर उसने सभी चालें सीख लीं।

घर में लकड़ी की दो बड़ी-बड़ी आलमारियाँ हुआ करती थीं जो तीसरी मंजिल पर बने एकमात्र बड़े कमरे को दो बराबर भागों में बांटती थीं। श्रद्धा भैया अपना शतरंज उसी लकड़ी की आलमारी में, जिसमें दुनियाँ भर के प्राचीन ग्रंथ लाल कपड़ों से लिपटे सुरक्षित रखे हए थे, ताला बंद कर छुपाकर रखते ताकि उनके शरारती भाई न खेल सकें। मध्यम वर्गीय परिवारों में बड़ा भाई, अपने खेल के सामान या व्यक्तिगत पसंद की छोटी-छोटी चीजों को भी अमूल्य निधि की तरह संभालकर, छोटे भाइयों से छुपाकर रखता है । क्या मजाल की उसकी कीमती चीजें, (चाहे गंगाजी से उठाकर लाया गया सुडौल पत्थर का टुकड़ा ही क्यों न हो) उसके छोटे भाई छू भी लें !

आनंद बड़े भाई साहब के विश्वविद्यालय जाने की प्रतीक्षा करता। जब वे चले जाते तो मुन्ना को आवाज देकर बुलाता। मुन्ना के आते ही दोनो मिलकर, आलमारी के ऊपरी हिस्से से जो खुला रहता, हाथ डालकर, नीचे के खाने में रख्खा शतरंज का दफ्ती का बोर्ड और गोटियाँ निकाल लेते। आनंद के भैया कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इसमें हाथ डाला भी जा सकता था। छोटे बच्चे अगर चोरी पर उतर आयें तो सफाई से, अपनी नन्हीं उँगलिय़ों का इस्तेमाल कर, बड़े सामानों में हाथ साफ कर सकते हैं। शुरू-शुरू में आनंद ने मुन्ना को शतरंज के नीयम सीखाये जो उसने बड़े भाई साहब को खेलते देखकर सीखे थे । जल्दी ही मुन्ना को भी शतरंज खेलना आ गया। दोनो जमकर खेलते और खेलने के बाद उसी तरह रख देते जैसे निकालते थे। आनंद के भैया को इसकी खबर कभी न होती यदि खेलते-खलते दोनो में झगड़ा न हुआ होता।

हुआ यूँ कि एक दिन हारने के बाद चिढ़कर मुन्ना ने आनंद के सर पर लकड़ी का वजीर दे मारा। उस समय शतरंज के मोहरों की बनावट ऐसी होती कि राजा और वजीर के सर पर मुकुट जैसी लकड़ी की छोटी सी घुण्डी बनी होती। ऊँट घोड़े की तुलना में थोड़े लम्बे, हाथी क्यारम की गोटियों की तरह चपटे और प्यादे छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े हुआ करते थे। आनंद ने वजीर से मुन्ना को ऐसे मारा कि सर पर टकराते ही वजीर की घुण्डी टूट गई। वजीर की हालत देख जहां आनंद अपना चोट भूल गया वहीं मुन्ना का गुस्सा भी जाता रहा। अब दोनो घबड़ाये कि चोरी पकड़ी गई। भैया आयेंगे तो बहुत मारेंगे। दोनो इस समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लगे। काफी विचार विमर्श के बाद मुन्ना ने सलाह दी कि क्यों न हम शेष बचे राजा वजीर के सर की घुण्डी भी तोड़ दें जिससे सभी मोहरे एक समान हो जांय। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। जब मुसीबत आने को होती है तो सबसे पहले बुद्धि साथ छोड़ जाती है। घबड़ाहट में दोनो ने मिलकर शेष बची घुण्डियाँ भी तोड़ डालीं। मोहरे वैसे ही रख दिये गये।

उस दिन शाम को आनंद के भाई साहब ने जैसे ही अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए मोहरे निकाले उनका दिमाग खराब हो गया। बंद तालों में रखे मोहरों की हालत देख कर उनको बहुत गुस्सा आया। उन्हें समझते देर न लगी कि आनंद की ही शैतानी है। पूछने पर आनंद ने सब कबूल कर लिया। जब भाई साहब ने और उनके दोस्तों ने सुना कि उन्होने सभी मोहरे क्यों तोड़े थे तो देर तक आनंद और मुन्ना की बेबकूफियों पर हंसते रहे। अच्छी बात यह हुई कि हंसी ने भैया के क्रोध का मार्ग अवरूद्ध कर दिया। क्रोध और हँसी दोनो की दोस्ती हो ही नहीं सकती। मासूम गलतियाँ अक्सर पिटने से बच जाया करती हैं। क्रोध हाथ मलता कुछ देर ठगा सा खड़ा रह जाता है फिर कपूर की तरह जलकर भस्म हो जाता है। शेष रह जाती है नेह भरी यादों की कस्तूरी सुगंध, जो जीवन भर हर्षाती रहती है।

उस दिन से एक बात और अच्छी यह हुई कि शतरंज बाहर ही रखा जाने लगा। आनंद को भी जब उसके भाई साहब खेल रहे होते बीच-बीच में चाल बताने का मौका मिलने लगा। धीरे-धीरे वह भी भाई साहब और उनके साथियों के साथ एक-दो बाजी खेलने लगा। भाई साहब को शतरंज का ज्यादा नशा न था। वे बस मित्रों के साथ एक दो बाजी ही खेलते मगर जब से आनंद ने उन्हें हराना शुरू किया उनका और उनके दोस्तों का खेलना और भी कम होता गया। छोटे भाई से हारना, बड़े भाई जल्दी बर्दास्त नहीं कर पाते इसके विपरीत यह भी सच है कि पिता अपने बच्चों से हार कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। धीरे-धीरे शतरंज के मोहरे व शतरंज का शौक बड़े भाई साहब से ट्रांसफर होकर पूर्णतया आनंद के हिस्से आ गया।
( जारी....)