08 January, 2011

यादें-29 ( मकर संक्रांति )

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             मकर संक्रांति का त्योहार ज्यों-ज्यों करीब आता त्यों-त्यों पक्के महाल के घरों की धड़कने तेज होती जातीं। बच्चे पतंग उड़ाने की चिंता में तो माता-पिता बच्चों की चिंता में दिन-दिन घुलते रहते। कमरे में लेटो तो यूँ लगता कि हम एक ऐसे ढोल में बंद हैं जिसे कई एक साथ पीट रहे हैं। अकुलाकर छत पर चढ़ो तो बच्चों की पतंग बाजी देखकर सांसें जहाँ की तहाँ थम सी जातीं। तरह-तरह की आवाजें सुनाई देतीं....अरे...मर जैबे रे.s..s..गिरल-गिरल..s..s..कटल-कटल.s..s..बड़ी नक हौ..!..आवा, पेंचा लड़ावा.....ढील दे रे.s..ढील दे.s..खींच के.s..भक्काटा हौ...। जिस दिन पिता जी की छुट्टी होती उस दिन आनंद के लिए घर पर पतंग उड़ाना संभव नहीं था। उस दिन वह श्रीकांत या दूसरे दोस्तों के घरों की शरण लेता मगर जब पिताजी नहीं होते आनंद खूब पतंग उड़ाता। हाँ, मकर संक्रांति के दिन सभी को अभय दान प्राप्त होता था। आनंद के घर की छत के ठीक पीछे दूसरे घर की ऊँची छत थी। जब कोई पतंग कट कर आती तो वहीं रह जाती। उस पतंग को लूटने के चक्कर में आनंद बंदर की तरह उस छत पर चढ़ता। जरा सा पैर फिसला नहीं कि तीन मंजिल नीचे गली में गिरने की पूरी संभावना थी। उस छत पर चढ़ते आनंद के भैया उसे देख चुके थे। सख्त आदेश था कि पतंग लूटने के चक्कर में वहाँ नहीं चढ़ना है मगर पतंग लूटने का मोह आनंद कभी नहीं छोड़ पाता। यह तो किस्मत अच्छी थी कि कभी गिरा नहीं वरना कुछ भी हो सकता था।

यूँ तो भारत के सभी प्रांतों में अलग-अलग नाम से इस त्योहार को मनाते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से स्नान-दान पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। प्रयाग का प्रसिद्ध माघ मेला भी इसी दिन से प्रारंभ होता है। सूर्य की उपासना का यह त्यौहार हमें अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला त्योहार है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं। दिन बड़े व रातें छोटी होती जाती हैं। माना जाता है कि भगवान भाष्कर शनि से मिलने स्वयंम् उनके घर जाते हैं। शनि देव मकर राशि के स्वामी हैं इसलिए इसे मकर संक्रांति के नास से जाना जाता है। गंगा स्नान के  पश्चात खिचड़ी दान व खिचड़ी खाने का चलन है। इस दिन की (उड़द की काली दाल से बनी) खिचड़ी भी साधारण नहीं होती वरन एक विशेष पकवान, विशेष अंदाज में खाने का दिन होता है जिसे उसके यारों के साथ खाया जाता है। लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है... खिचडी के हैं चार यार । दही, पापड़, घी, अचार।। इसलिए इसे खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है। त्योहार से पूर्व ही विवाहित बेटियों के घर खिचड़ी पहुँचाने के अनिवार्य सामाजिक बंधन से भी इस पर्व के महत्व को समझा जा सकता है। इस त्योहार को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है इसलिए यह हर वर्ष 14 जनवरी के दिन ही मनाया जाता है।  

मकर संक्रांति ज्यों-ज्यों करीब आता त्यों-त्यों पतंगबाजी का शौक परवान चढ़ता। गुल्लक फूट जाते। एक-एक कर सभी बड़ों से मंझा-पतंग खरीदने के पैसे मांगे जाते। खिचड़ी से एक दिन पहले जमकर खरीददारी होती। देर शाम तक नये खरीदे गये पतंगों के कन्ने साधे जाते। थककर जब बच्चे सोते तो नींद में भी पंतगबाजी चलती रहती। दूसरी तरफ पिताजी अपनी खरीददारी में परेशान रहते। बड़ों के लिए यह पर्व जहाँ धार्मिक-सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता वहीं बच्चों के लिए इसका महत्व मात्र पतंगबाजी और तिल-गुड़ के लढ्ढू खाने तक ही सीमित था। इस दिन के लिए जहाँ पिताजी जप-तप, दान-स्नान  की तैयारी में व्यस्त रहते वहीं माता जी बच्चों के लिए तिल-गुड़ के लढ्ढू, चीनी खौलाकर उसके शीरे में मूंगफली के दाने की पट्टी बनाने में लगी रहतीं। आनंद वैसे तो नित्य गंगा स्नान करता मगर आज के दिन पतंगबाजी के चक्कर में नहाने में भी समय जाया नहीं करना चाहता था। बिना स्नान किये भोजन तो क्या एक लढ्ढू भी छूने की इजाजत नहीं थी वरना संभव था कि वह पूरे दिन बिना स्नान के ही रह जाता।

इधर सुरूज नरायण रेती पार से निकलने की तैयारी करते उधर आनंद आकाश ताक रहा  होता। उसे बस प्रतीक्षा इस बात की होती कि कहीं आकाश में एक भी पतंग उड़ते दिख जाय । सूर्य का उगना नहीं, पतंग का आकाश में दिखना मकर संक्रांति के आगाज का संकेत होता। धूप निकलने तक तो समूजा बनारस आनंद के इस महापर्व में पूरी तरह डूब चुका होता। क्या किशोर  ! क्या युवा ! सभी अपनी-अपनी पेंचें लड़ा रहे होते। हर उम्र के लिए यह त्योहार गज़ब की स्फूर्ती प्रदान करने वाला होता। वृद्ध धार्मिक क्रिया कलापों में तो किशोर पतंग बाजी में मगन रहते । सबसे दयनीय स्थिति माताओं की होती। एक ओर तो वे अपने पति देव के धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्णाहुती देतीं वहीं दूसरी ओर बच्चों की चिंता में दिन भर उनकी सासें जहाँ की तहाँ अटकी रहतीं। युवा पतंग के पेंचों के साथ-साथ दिलों के तार भी जोड़ रहे होते। जान बूझ कर दूर खड़ी षोड़शी के छत पर पतंग गिराना और न तोड़ने की मन्नत करना बड़ा ही मनोहारी दृष्य उत्पन्न करता । ऐसे दृष्यों को देखकर कहीं सांसे धौंकनी की तरह तेज-तेज चलने लगती तो कहीं लम्बी आहें बन जातीं। वे खुश किस्मत होते जो किसी बाला से पतंग की छुड़ैया भी पा जाते।  

सूर्यास्त के समय का दृष्य बड़ा ही नयनाभिराम होता। समूचा आकाश रंग-बिरंगे पतंगों से आच्छादित। जिधर देखो उधर पतंग। पतंग ही पतंग। दूर गगन में उड़ते पंछी और पतंग में भेद करना कठिन हो जाता। पंछिंयों में घर लौटने की जल्दी। पतंगों में और उड़ लेने की चाहत। लम्बी पूंछ वाली पतंग। छोटी पूंछ वाली पतंग। काली पतंग। गुलाबी पतंग। कोई पतंगबाज फंसा रहा होता पतंग से पतंग तो कोई पतंगबाज लड़ा रहा होता पतंग से पतंग । कोई कटी पतंग सहसा पा जाती सहारा। थाम लेती उसका हाथ उसके आगे-पीछे घूमती दूसरी मनचली पतंग। कोई दुष्ट ईर्ष्या वश खींच लेता उसकी टांग। शोहदे चीखते ...भक्काटा हौ.....हो जाती वह...फिर से कटी पतंग। गिरने लगती बेसहारा दो कटी पतंग। सहसा खुल जाता किसी अभागे का भाग। थाम लेता एक की डोर। खींची चली आती दूसरी भी, पहली के संग। लम्बी होने लगतीं परछाईयाँ । गुलाबी होने लगता समूचा शहर । पंछियों मे बदल जाते सभी पतंग सहसा। गूँजने लगती चहचहाहटें। छतों से उतरकर कमरों में दुबकने लगते बच्चे। चैन की सांस लेता थककर निढाल हुआ दिन। खुशी से झूमने लगता चाँद। सकुशल हैं मेरे आँखों के तारे !       

( जारी......)

05 January, 2011

आनंद की यादें-28 ( आपात काल )


वह आपाताकाल का दौर था। लोक नायक जय प्रकाश नारायण का 5 जून सन् 1974 को पटना के ऐतिहासिक मैदान में दिया गया संपूर्ण क्रांति का नारा संपूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है की धार आपात काल की बर्बरता के आगे मंद पड़ चुकी जान पड़ती थी। हर जोर जुर्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा हैइन्कलाब जिंदाबाद जैसे नारे अब नहीं सुनाई पड़ते थे। वरना आनंद की गली से जब भी इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाती भींड़ गुजरती तो वह भी तीन क्लास जिंदाबाद चीखते हुए भींड़ में शामिल हो जाता। इन्कलाब जिंदाबाद के नारे को बहुत दिनो तक तीन क्लास जिंदाबाद ही समझता रहा। 26 जून 1975 को आधी रात के बाद जब इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल की घोषणा की तो सूरज निकलने से पहले ही इंदिरा विरोधी आंदोलन की अगुवाई कर रहे विपक्ष के बड़े-बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये। जिनमें जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, मोरारजी देशाई, चौधरी चरण सिंह और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता प्रमुख थे। 26 जून को देश ने लोकतंत्र को आपातकाल की काल कोठरी के भीतर कैद पाया। सरकारी कामकाज पर अदालतें भी टिप्पणी नहीं कर सकती थीं। प्रेस पर सेंशर लगा दिया गया था। सरकार विरोधी कोई खबर बाहर नहीं आ सकती थी। सरकार विरोधी हर गतिविधी बर्बरता से कुचल दी जा रही थी। आपात काल लगाने की मुख्य वजह सरकार का चौतरफा घिर जाना था। एक ओर जे पी आंदोलन का दबदबा तो दूसरी तरफ इलाहाबाद उच्चन्यायालय का फैसला। फैसले में सन् 1971 के रायबरेली चुनाव में धांधली के आरोप को सही मानते हुए सांसद के तौर पर उनके चुनाव को अवैध करार कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय से भी कोई खास राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने कुर्सी तो छोड़ दी लेकिन संसद में वोट देने का अधिकार भी छीन लिया। इन हालातों से निकलने के लिए आपात काल ही सुगम रास्ता समझ में आया। 

आपातकाल लागू करने के साथ ही इंदिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की। संजय गांधी, बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ला और ओम मेहता जैसे नेता प्रमुख सलाहकार व कर्ताधर्ता बनके उभरे। जिनके जिम्मे 20 सूत्री कार्यक्रम लागू कराने की जिम्मेदारी थी। आपातकाल के दौरान राजनैतिक गिरफ्तारियों के अलावा जबरन नसबंदी और बड़े पैमाने पर झुग्गी झोपड़ियों का सफाया किया गया। झुग्गी झोपड़ियों की सफाई तो लोग भूल गये लेकिन जबरी नसबंदी का आतंक लोगों को अभी तक याद है।

इन सब घटनाओं से बेखबर आनंद और उसके दोस्त बचपन की अपनी शैतानी में ही मशगूल रहते थे। उन्हें इन घटनाओं की खबरें बी0बी0सी लंदन पर पिता जी द्वारा कान लगाकर सुनना महान वाहियात लगता था। खास कर तब और भी ज्यादा वाहियात जब क्रिकेट की कमेंट्री आ रही होती। आनंद को इस बात की अधिक चिंता रहती कि गावस्कर की सेचुंरी बन जाय या नये उभरते आल राउंडर कपिल देव ने आज कितने विकेट लिये। गली-गली में जब लोग एक दूसरे को चिढ़ाते...भाग जा घरे में नाहीं तs तोहरो नसबंदी हो जाई…!” तो उस समय आनंद को नसबंदी जैसे शब्दों का सिर्फ यही अर्थ पता होता कि इससे अधिक बच्चे नहीं होते। कई बार वह रातों की नींद इस चिंता में बर्बाद कर चुका था कि उसके पिता को नसबंदी करानी चाहिए थी या नहीं। अंत में वह कहता कि यदि पिता जी ने नसबंदी करा दी होती तो मैं कैसे पैदा हुआ होता ! ये तो कहते हैं कि दो या तीन बच्चे होते हैं घर में अच्छे ! स्कूलों में नियमित होने वाली पढ़ाई से और रोज-रोज होने वाले आंदोलनों पर रोक से, विद्यार्थियों में एक अजीब सी बेचैनी थी। कुल मिलाकर आपातकाल का बच्चों पर यही खास प्रभाव देखने को मिला। 

आपातकाल उस राष्ट्र के लिए जिसने स्वस्थ्य लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लेना सीख लिया हो एक अभिशाप था। लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन था। साथ ही एक तानाशाह के हाथों लग जाने पर भस्मासुर की तरह सबकुछ जला देने की क्षमता रखने वाला था। यह तो अच्छा हुआ कि इंदिरा जी को अपनी गलती का शीघ्र एहसास हो गया वरना संजय गांधी जैसे महत्वाकांक्षी युवराज तो गरीबों पर कहर बन कर टूटने का माध्यम बन जाते। उनको खुश करने के लिए अधिकारी जबरी नसबंदी से आगे ना जाने किस स्तर तक पहुँच जाते कहना मुश्किल है। न तो राजलोलुप व्यक्ति की महत्वाकांक्षा कभी कम होती है न चाटुकारों की चाटुकारिता शक्ति। इतना सब कुछ होते हुए भी आपातकाल के कुछ फायदे भी थे। लोगों को जंगल राज में कानून का पहली बार एहसास हुआ था। सरकारी कार्य समय से होने लगे। कर्मचारी भय से ही सही अच्छा कार्य करने के लिए बाध्य हुए। कालाबजारी पर कुछ हद तक अंकुश लगा। कीमतें कम हुईं। जनसंख्या नियंत्रण का इंदिरा जी का प्रयास भी सराहनीय साबित होता यदि इसका गलत इस्तेमाल न होता।

जंगली के पिता जहां पंक्चर साइकिल लेकर भी दौड़ते-भागते समय से ऑफिस जाने की विवशता पर खीझते वहीं जंगली के स्कूल में चल रही पढ़ाई की तरक्की और छात्र आंदोलन की समाप्ती पर खुश भी होते। मोहल्ले में उनको यह कहते हुए सुना जा सकता था...हे देखो..बहुत अच्छा किया इंदिरा जी ने। हम तो ..हे देखोपहिले से परिवार नियोजन कराये हैं। हमारे दो ही बच्चे हैं। हे देखो...स्कूल में पढ़ाई जम कर हो रही है। हे देखोफस्ट आएगा मेरा बेटा। कोई चुटकी लेता...सबेरवाँ पंक्चर साइकिल लेहले कहाँ भागत रहला हs ? आपातकाल न होत तs खा पी के दुपहरे जैता न !” वे कहते,“इससे क्या ?...हे देखोसमय से ऑफिस तो जाना ही चाहिए। हे देखो...जैसा बोओगे वैसा काटोगे..तुम हरामखोरी करोगे तो तुम्हारे बच्चे भूखे मरेंगे ! हे देखो….देश में जब ज्यादे हरामखोर जुट जांय तो इनका इलाज ऐसे ही करना पड़ता है। हे देखो…..हमारे देश भक्तों ने कितने त्याग कर के हमें आजादी दिलाई ?...हम क्या कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए ? हे देखो ...। तब तक उनको चटकाने वाला हाथ जोड़ता....बस करा मालिक ! समझ गइली। सब उनके उपदेश से खीझते मगर जानते कि इनकी बातों में कड़वी सच्चाई है। (जारी....)