28 November, 2010

यादें-24 (दुर्गाघाटी मुक्की)

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              कार्तिक पूर्णिमा के दिन इधर दीप जलते उधर दुर्गाघाटी मुक्की शुरू हो जाती । होली की मुक्केबाजी का जो कसर शेष रह जाता उसे आज के ही दिन चुकाया जाता। दरअसल होता यह था कि होली के दिन मोहल्ले के छोरे, रंग खेल कर दुर्गाघाट स्थित राम मंदिर के सामने चौड़ी गली पर जमा होते और वहीं ताल ठोंक कर इक-दूजे को मुक्केबाजी का निमंत्रण देते। मोहल्ले के बूढ़े-बड़े निर्णायक की भूमिका निभाते और जम कर मुक्केबाजी होती। होते-होते बात अक्सर बिगड़ भी जाती। अपने छोटे भाईयों को पिटता देख बड़े भी शामिल हो जाते। बड़ों के शामिल होने का मतलब बड़ी लड़ाई का दावत। प्रायः ऐसा भी होता कि ये भांग या शराब के नशे में चूर एक-दूसरे से इतना उलझ जाते कि मरने मारने पर आमादा हो जाते। होते-होते बात इनके घरों  तक पहुँचती। घर के बुजुर्ग मैदान में उतर कर अपने-अपने पक्ष को डांट-डपट कर शांत करते...कमजोर पक्ष अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर के सम्मुख नतमस्तक होता । कोई कहता, होली कत्यौहार हौ मालिक ! खेल-खेल में त्यौहार कs सत्यानाश मत करा ! ई त प्रेम कs त्यौहार हौ ! चला गले मिला। दूसरा चीखता, अबे चुप रे मादर.....! अब बोलले तs यहीं काट के फेंक देब ! देखत ना हौए, गुरूजी कहत हौवन..! भाग रे भोनुआं...भाग रे बचनुआँ...छोटे तनिक समझाव सारे के...!”  इन सब धमाचौकड़ी, गाली-गलौज, मान मनौव्वल के बाद किसी तरह झगड़ा शांत होता लेकिन जो कसक मन में दबी रह जाती, वह कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्ण करने का संकल्प, हारा हुआ पक्ष मन में लिए रहता। इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के दिन जो मुक्केबाजी होती, उसमें हारा हुआ पक्ष दूसरे को होली के दिन देख लेने की धमकी देता। कालांतर में एक भीषण घटना घटी जिसके कारण आपस में वैमनस्व इतना बढ़ गया कि चोट खाकर भी हँसते हुए पान घुलाकर गले मिलने की दुर्गाघाटी मुक्की की पुरानी स्वस्थ परंपरा पूर्णतया विलुप्त हो गई।

             आज कार्तिक पूर्णिमा है। सुबह से गंगा-स्नान करने वालों की भीड़ से गंगा के घाट गुँजायमान हैं। संपूर्ण बिंदु तीर्थ और आस पास के मोहल्लों का उत्साह देखते ही बनता है। एक ओर घाटों की साफ-सफाई का कार्य जोरों पर है तो दूसरी ओर दुर्गाघाटी मुक्की की तैयारी। दुर्गाघाट की ऊँची खड़ी सीढ़ी पर जहाँ दिन ढले देव दीपावली मनाने की तैयारी चल रही है तो मोहल्ले-मोहल्ले में हम वय छोरे, घूम-घूम कर इक-दूजे को ताल ठोंक, मुक्केबाजी का चैंलेज देते फिर रहे हैं।

             दो-चार दिन में आनंद पूर्णतया ठीक हो गया था मगर गंगा जी में डूबने की घटना ने पूरी जासूस मंडली के होश-ठिकाने ला दिए थे। कोई कहीं पिटाया तो कोई कहीं। घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। हालांकि आनंद ने पूरा इल्जाम अपने सर पर ही लिया मगर सभी समझ गए कि यह इन तीनों बच्चों की बेवकूफियों का ही परिणाम था। घर से बाहर निकलते ही तीनो में से किसी को भी देख, सब ऐसे हंसते मानो इनसे बड़ा बेवकूफ धरती पर दूसरा नहीं है। कोई कहता, का गुरू ? चला हमहूँ के सिखाय दा.. हाथ-पैर बांध के कैसे तैरल जाला !” तो कोई कहता, बच गईला बच्चू नाहीं तs गैले रहला !” घर से गंगा जी नहाने की सख्त मनाहीं हो गई सो अलग। तीनो मारे भय के एक दूसरे से मिलने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे।

             विशाल और श्रीकांत के बीच होने वाले संभावित मुक्केबाजी की उत्सुकता आनंद और मुन्ना को भी घाट तक खींच लाई थी। गोधूली बेला बीत चुकी थी। चँद्राकार बनारस की घाटों में पंचगंगा घाट का हजारा दीपस्तंभ और दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर जल रहे दीप, अलग ही आभा बिखेर रहे थे। चम-चम चाँदनी से नहाई गंगा की लहरें और ठीक ऊपर आकाश में टंगे पूर्ण चन्द्र को देख कर यूँ प्रतीत हो रहा था मानो भगवान शिव स्वयम् देवताओं के साथ उपश्थित हो इस दीप पर्व और मुक्केबाजी प्रतियोगिता का आनंद ले रहे हैं। किशोरों में दीप जलाने की होड़ लगी थी। श्रीकांत के पिता और मराठी समाज की दीप जलाने में महति भूमिका होती थी। श्रीकांत ऊपर खड़ा पिता के जाने की प्रतीक्षा कर रहा था तो नीचे से विशाल बार-बार श्रीकांत को मैदान में उतरने के लिए ताल ठोंक रहा था। आनंद और मुन्ना कभी सीढ़ी के सामने चौड़े पत्थर के घाट पर हो रहे धमाल को देखते तो कभी श्रीकांत की विवशता का आनंद लेते।

             कभी-कभी बड़ा ही रोचक दृश्य उपस्थित हो जाता। कोई सीकिया पहलवान किसी मोटे पहलवान को ताल ठोंककर चुनौती दे आता...! मोटा ऐसे गुर्राता मानो कोई हाथी चूहे को सूंड़ में लपेटकर सौ योजन दूर फेंक देना चाहता हो ! भीड़ चीखती, हाँ..हाँ होई...! का भयल हौ...? तू आवा न…! हाँ रे बेटा, चल आगे ! आवा पहलवान...!” कोई चीखता, हड्डी पे कबड्डी होई ताक धिना धिन..।पूरी भीड़ अचानक से गोल घेरा बना कर उछलने-कूदने लगती। चूहा जब तक पकड़ में न आता, गोल-गोल खूब घूम कर ताल ठोंकता मगर जैसे ही हत्थे चढ़ जाता, मोटा पहलवान उसे दोनो हाथों से ऊपर उठाकर चारों तरफ घूमाता... यहीं फर्श पर पटक देब सारे के...जिनगी में केहू से कब्बो मुक्की लड़े कs नाम न लेई...!” भीड़ फिर चीखती.. अरे रे...! जाय दा सरदार...! मर जाई बेचारा...! तोहें फेके कs मन हौ तs फेंक दs सारे के....s.s.. मढ़ी से, सब पाप धुल जाई। मोटा पहलवान हँसता हुआ सीकिया पहलवान को मढ़ी से पानी में फेक देता। सभी नारा लगाते हर हर महादेव।”  कभी कोई मुक्की खा कर अपने दांत तुड़वाता ..फर्श पर खून की बूंदें गिराता...देख लेने की धमकी देता घर की राह पकड़ता।

             ऐसी रोचक घटनाओं के बीच छोटे-छोटे किशोर भी लड़वाये जाते। जैसे ही श्रीकांत के पिता जी घर गए, विशाल और श्रीकांत ने भी अपने-अपने हाथ आजमाए...। बात आगे बढ़ती इससे पहले ही बड़े पहलवानो ने दोनो को गले मिलवाया, एक-एक माला पहनाई और दोनो हँसते हुए अपने साथियों के साथ घर की ओर चल पड़े।
(जारी....)

20 November, 2010

यादें-23 ( हमें क्या पता हम तो उधर तैर रहे थे…! )



            दूसरे दिन, मध्याह्न 12 बजे, अपने निर्धारित योजना को मूर्तरूप देने एकत्र हुए...तीनो बाल जासूस। छुट्टी का दिन होने के कारण पंचगंगा घाट पर साफा-पानी लगाने वालों और नित्य स्नान करने वालों की भीड़-भाड़ थी। थोड़ी देर की तैराकी, श्वांस रोककर उल्टा लेटने के अभ्यास के बाद तीनो की हिम्मत बढ़ी । उन्हें लगा कि डुबकी मारकर बंधन खोलना बहुत कठिन नहीं है। विशाल ने हँसते हुए आनंद से पूछा, क्यों...! बांधे हाथ-पैर ?”  आनंद तो पहले से ही तैयार था।  बोला, हाँ, हाँ, देखो मैं कितनी आसानी से निकल आता हूँ !” फिर क्या था ! आनंद तख्ते पर जा लेटा, मुन्ना ने उसके पैर गमछे से कसकर बांध दिया और विशाल ने हाथ। देखते ही देखते आनंद घाट पर पानी की धरातल पर बधे, काठ के तख्ते पर जैसे तैसे खड़ा हो, दोनो पंजों के बल उछल कर, सर के बल गहरे पानी में छपाक से कूद गया।

           इस घाट पर ऊँची-ऊँची मढ़ियाँ हैं। एक दो सीढ़ी के बाद ही गहराई की थाह पाना कठिन है। जो बच्चे तैरना नहीं जानते, वे इस घाट पर नहीं आते मगर जो तैरना जानते हैं, उनके लिए यह घाट स्वर्ग है। ऊँची मढ़ी पर चढ़कर छपाक से पानी में हेडर साधना और पानी के भीतर ही भीतर तैर कर कलाबाजी दिखाते हुए दूर किसी कोने से हँसते हुए निकलकर, साथियों को हैरत में डालना, गंगा में तैरने वाले इन किशोरों के लिए आम बात है। भीड़-भाड़ होने के बावजूद किसी का भी ध्यान बच्चों की शैतानी पर नहीं गया। यहाँ के लोगों के लिए बच्चों का यह खेल माँ की गोद में दुधमुंहे बच्चों की उछल-कूद के सिवा कुछ अधिक मायने नहीं रखता ।

           आज विशेष बात थी । आज एक जासूस कुछ खास करने के इरादे से कूदा था। दोनो मित्र सांस रोके आनंद के निकलने का इंतजार कर रहे थे। चौकन्ने हो, कभी इधर देखते तो कभी उधर। उन्हें लगता कि कहीं चुपके सा बाहर निकलकर हँस तो नहीं रहा है। मगर हाय ! एक दो बार ऊपर आने के बाद आनंद लगभग पाँच मिनट तक बाहर नहीं निकला तो दोनो घबरा कर चीखने-चिल्लाने लगे... आनंद डूब गया..!..आनंद डूब गया..!...बचाओ.s..s..बचाओ..s..s..!” फिर तो घाट पर कोहराम मच गया...लोग दौड़े...मल्लाह दौड़े ..मल्लाहों के बच्चे दौड़े ...असंख्य प्रश्न...कब…? कैसे…? कहाँ…? ....दोनो के एक ही उत्तर ...यहीं से कूदा था ...! हाथ-पैर बांधकर..! पाँच मिनट हो गया नहीं निकला !” दूसरी बात होती तो मल्लाह भी समझते कि अभी निकल आएगा लेकिन जब सुना कि हाथ-पैर बांधकर कूदा है तो एक-एक कर सभी पानी में छलांग लगाने लगे। कुछ ही पल में जब एक मल्लाह ने आनंद के निष्प्राण से शरीर को नदी से बाहर निकाला तो सभी के चेहरे भय की आशंका से हदसे हुए थे ! आनंद की हालत देखने लायक थी। हाथ-पैर वैसे ही बंधे थे...पेट गुब्बारे की तरह फूला हुआ था...! आँखें बंद...! पहली नज़र में उसे देख कर कोई भी यही समझता कि किसी ने बांध कर नदी में फेंक दिया है मरने के लिए। तभी कोई चीखा..सांस चलत हौ...! पेट के बल लेटाओ..! पीठ  दबाओ..! जिस मल्लाह ने उसे बाहर निकाला, वह तो हीरो था..। जोर से चीखा..वही तs करे जात हई मालिक...! अब सबै बुद्धि बतावे बदे कपार पर मत चढ़ा..! हमे पता हौ कि का करे के हौ। एक पल देर किए बिना उसने आनंद को पेट के बल लिटाया और धीरे-धीरे कुशल वैद्य की तरह पीठ दबाने लगा। .... कुछ ही पल में आनंद के मुँह से ढेर सारा पानी निकलने लगा...

             इधर, मुन्ना-विशाल से लोगों ने पूछना शुरू किया तो मारे डर के उन्होने यही कहा,” हमें का पता…! हम तो उधर तैर रहे थे...! हाँ, हमने उसे हाथ-पैर बांधकर नदी में कूदते देखा था ! तभी तो चिल्लाए..कि कहीं डूब न जाय । कोई बड़बड़ाया..पैर तs मान ला अपने से बंधले होई..लेकिन हाथ कैसे बांध लेई..? जरूर दाल में कुछ काला हौ ! मुन्ना और विशाल ने सुना तो डर के मारे घिघ्घी बंध गई ! दोनो के पास भगवान से दुआ मागने के सिवा कोई चारा नहीं था। उनका मन कर रहा था कि वहाँ से भाग जांय लेकिन आनंद की हालत देख कर वहाँ से हटने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया कि थोड़ी ही देर में आनंद को होश आ गया...होश में आने के बाद भी उसकी हालत कुछ बोलने लायक नहीं थी। उसने इतना ही कहा...हम.. हाथ-पैर बांधकर... नदी में... तैरने का अभ्यास.. ” … फिर बेहोशी के आलम में चला गया। सभी उसकी बात सुनकर हँसने और कोसने लगे...ससुर के नाती..चला तोहार किस्मत अच्छा रहल जौन बच गइला... नाहीं तs अपनी ओर से मरे कs पूरा इंतजाम कैले ही रहला। तब तक कोई चीखा..राहे दs अभहिन एकर हालत ठीक ना हौ...एहके घर पहुंचा द.s..सभी एक श्वर में बोले..हाँ..हाँ..घरे पहुँचा दs..तब तक आनंद के डूबने की खबर उसके घर तक पहुँच चुकी थी ...उसके सभी भाई दौड़े-दौड़े घाट पर आ चुके थे। मल्लाह ने आनंद को उठाकर वीरू भैया कि गोद में देते हुए कहा...ला..! संभाला..! आज तs गैले रहलन..। आनंद के भैया बिना कुछ बोले आनंद को लिए घर की ओर दौड़े..

             भीड़ छट गई तो मुन्ना-विशाल के भी जान में जान आई। मुन्ना ने विशाल से कहा..हम तो पहले ही कह रहे थे कि यह पागलपन है...हमारी बात तो तुम लोग सुनते ही नहीं...। अपने तो मरता ही हमे भी मरवाने का पूरा इंतजाम कर दिया था। विशाल बोला..यह कौन जानता था कि डूब ही जाएगा...हम लोगों को भी साथ ही साथ डुबकी लगानी चाहिए थी..! मुन्ना झल्लाकर बोला, अच्छा…! अभी तुमको भी जानना शेष है...! जाओ तुम भी कूद मरो...! साथ-साथ डुबकी लगानी चाहिए थी ! अभी खतरा टला नहीं है। तुमने लोगों की बातें नहीं सुनी कह रहे थे...पैर तो बांध लिया मगर हाथ कैसे अपने से बांध सकता है!’ उनका इशारा हमी लोगों पर था। मुन्ना की बात सुनकर विशाल का भय और भी बढ़ गया। दोनो घर जाने के बजाय वहीं बैठकर देर तक बचने का उपाय सोचते रहे । विशाल ने कहा..कहीं आनंद ने हमारा नाम ले लिया तो…?” मुन्ना के आँखों के सामने साइकिल की सवारी में हुई दुर्घटना का चित्र कौंध गया । उसने पूरे विश्वास के साथ उत्तर दिया..आनंद बेवकूफी तो कर सकता है मगर लाख पिटने के बाद भी हमारा नाम नहीं लेगा। मुन्ना की बात सुन विशाल ने संतोष की सांस ली। अंत में यही निष्कर्ष निकला कि सबकुछ आनंद के बताने पर ही निर्भर करता है। यदि आनंद ने हमारा नाम नहीं लिया तो कोई हमे कुछ नहीं कहेगा। हम तो बस यही उत्तर देंगे कि हमें क्या पता हम तो उधर तैर रहे थे…!
(जारी....)    

17 November, 2010

यादें-22 (पंचगंगा घाट)


            अड्डा0 न0-6, पंचगंगा घाट। पूर्वनिर्धारित समय से थोड़ा पहले ही आनंद वहाँ पहुँच चुका था। कोई और समय होता तो मुन्ना, विशाल को साथ लिए बिना घर से ही नहीं चलता। आखिर उनके घर की दूरी थी ही कितनी ! हल्की सी आवाज भी देता तो दोनो मिल जाते। आज बात दूसरी थी आज एक जासूस दूसरे जासूस से मिलने जा रहा था.....अपने अड्डे पर बिना बताए, चुपके से घर से निकला ताकि कोई देख न ले और यहाँ आकर तट से लगे काठ के तख्ते पर बैठा, कभी हवा में कट कर गिर रहे पतंग को हसरत भरी निगाहों से देखता तो कभी घाट की खड़ी सीढ़ियों को कहाँ फंस गए दोनो अभी तक आए क्यों नहीं ? कहीं मैं ही जल्दी घर से तो नहीं निकल पड़ा ! कहीं मैने ही गलत तो नहीं सुन लिया ! कहीं और तो नहीं जाना था ! नाना प्रकार की आशंकाओं से ग्रसित आनंद खुद ही प्रश्न करता खुद ही मन को समझाता...आते होंगे..अभी समय नहीं हुआ होगा।

            पंचगंगाघाट....गंगा, यमुना, सरस्वति, धूत पापा और किरणा इन पाँच नदियों का संगम तट। कहते हैं कभी, मिलती थीं यहाँ..पाँच नदियाँ..सहसा यकीन ही नहीं होता ! लगता है कोरी कल्पना है। यहाँ तो अभी एक ही नदी दिखलाई पड़ती हैं..माँ गंगे। लेकिन जिस तेजी से दूसरी मौजूदा नदियाँ नालों में सिमट रही हैं उसे देखते हुए यकीन हो जाता है कि हाँ, कभी रहा होगा यह पाँच नदियों का संगम तट, तभी तो लोग कहते हैं..पंचगंगाघाट। यह कभी थी ऋषी अग्निबिन्दु की तपोभूमी जिन्हें वर मिला था भगवान विष्णु का । प्रकट हुए थे यहाँ देव, माधव के रूप में और बिन्दु तीर्थ, कहलाता था  यहाँ का सम्पूर्ण क्षेत्र।  कभी भगवान विष्णु का भव्य मंदिर था यहाँ जो बिन्दु माधव मंदिर के नाम से विख्यात था। 17 वीं शती में औरंगजेब द्वारा बिंदु माधव मंदिर नष्ट करके मस्जिद बना दी गई उसके बाद इस घाट को पंचगंगा घाट कहा जाने लगा। वर्तमान में जो बिन्दु माधव का मंदिर है उसका निर्माण 18वीं शती  के मध्य में भावन राम, महाराजा औध (सतारा) के द्वारा कराये जाने का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में जो मस्जिद है वह माधव राव का धरहरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ चढ़कर पूरे शहर को देखा जा सकता है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित पत्थरों से बना खूबसूरत हजारा दीपस्तंभ भी यहीं है जो देव दीपावली के दिन एक हजार से अधिक दीपों से जगमगा उठता है।    

                      मोक्ष की कामना में  काशीवास करती विधवाएँ, रोज शाम को आकर बैठ जाती हैं पंचगंगा घाट के किनारे। आँखें बंद किए बुदबुदाती रहती हैं मंत्र। एक छोटे से थैले के भीतर तेजी से हिलती रहती हैं  अँगुलियाँ, फेरती रहती हैं रूद्राक्ष की माला....आँखें बंदकर...पालथी मारे... रोज शाम.....पंचगंगाघाट के किनारे। दिन ढलते ही, कार्तिक मास में, जलते हैं आकाश दीप....पूनम की रात उतरते हैं देव, स्वर्ग से...! जलाते हैं दीप...! मनाते हैं दीपावली...तभी तो कहते हैं इसे देव दीपावली। देवताओं से प्रेरित हो, मनाने लगे हैं अब काशीवासी, संपूर्ण घाटों पर देव दीपावली...आने लगे हैं विदेशी..होने लगी है भीड़...बनारस को मिल गया है एक और लाखा मेला...बढ़ने लगी है भौतिकता..जोर-जोर बजते हैं घंटे-घड़ियाल, मुख फाड़कर चीखता है आदमी, जैसे कोई तेज बोलने वाला यंत्र, व्यावसायिक हो रहे हैं मंत्र...। आरती का शोर..! पूजा का शोर...! धीमी हो चली है गंगा की धार....पास आते जा रहे हैं किनारे...बांधे जा रहे हैं बांध...बहाते चले जा रहे हैं हम अपना मैल....डर है...कहीं भाग न जांय देव ..भारतीय संस्कृति के लिए कहीं यह खतरे की घंटी तो नहीं…! 

                        गंगा की लहरें, बहती नावें, उड़ती पतंग, उस पार रेती पर हो रही हलचल, दूर क्षितिज में फैले खेत, राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन और कार्तिक मास में हो रही घाटों की सफाई देखने में मशगूल आनंद जान ही न पाया कि मुन्ना, विशाल कब आकर उसके पीछे बैठ गए ! दोनो की हंसी, फुसफुसाहट से जब उसका ध्यान भंग हुआ तो वह चौंक कर चीख पड़ा....अरे यार, कब से तुम लोगों का इंतजार कर रहा हूँ और तुम लोग अब आ रहे हो ?” दोनो हंसने लगे...हम लोग तो काफी देर से बैठे हुए हैं, तुम्हीं गुड्डी  देख ललचिया रहे हो। आनंद बोला, गुड्डी नहीं...यहाँ बैठकर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी बात ध्यान से सुनो....बैठे-बैठे एक विचार मन में आया है कि क्यों न हम लोग दोनो हाथ-पैर बांधकर नदी में कूदें और रस्सी छुड़ाकर बाहर निकलने का अभ्यास करें ! वैसे ही जैसे उस कहानी में जासूस राम करता है जब बदमाश राम का हाथ-पैर बांधकर, उसे मरा जानकर, पुल से फेंक देते हैं ! वह प्राणायाम के द्वारा श्वांस रोककर, डोरी खोलकर, तैरते हुए बाहर आ जाता है ? तुम लोगों ने पढ़ी है वो कहानी ? वो देखो, वो साधू भी काफी देर से नदी में दोनो हाथ-पैर फैलाकर लेटा हुआ है। वह नदी में प्राणायाम कर रहा है..काफी देर से लेटा है मगर डूबता ही नहीं !”

विशालः हाँ, हाँ, पढ़ी है। फिर दूसरे दिन बदमाशों को खूब मजा चखाता है। जासूस रहीम भी उसकी खूब मदद करता है।

मुन्नाः पागल हो गए हो क्य तुम दोनो ? इतने जाड़े में ! पानी छू कर देखो ! हाथ-पैर बांधकर मरना है क्या ? मैं तो नहीं करूंगा ! तुम दोनो भाड़ में जाओ।

आनंदः अभी कहाँ जाड़ा शुरू हुआ है ? मैने यह कब कहा कि अभी कूदते हैं ! अभी तो हम अपना अंगोछा भी नहीं लाए..कल सुबह जब गंगा जी नहाने आएंगे तो यह कर सकते हैं।

विशालः हाँ, कल सुबह ही ठीक रहेगा। अभी तो पानी बहुत ठंडा है।

मुन्नाः हाँ, सुबह-सुबह सुरूज नरायण आग बरसाएंगे तुम्हारे लिए !

आनंदः कल तो संडे है ...दिन में आएंगे 12 बजे के बाद तब तो पानी ठंडा नहीं होगा ? मर कैसे जाएंगे ? बाकी दो लोग क्या मुँह बाए देखते रहेंगे ? अभ्यास ही तो करने को कह रहा हूँ !

मुन्नाः ठीक है। कल आना। पहले तुम्हीं अजमाना अपना आ..ई..डि..या...!  

आनंदः ठीक है भाई….तुम सब आओगे तो..!

विशालः हाँ, हाँ, क्यों नहीं ! हम भी अभ्यास करेंगे।

मुन्नाः आज तो काफी देर हो गई। आकाश दीप जलाने की तैयारी भी हो चुकी। मुझे ही स्कूल से आने में देर हो गई। आजकल बाबा भी बीमार चल रहे हैं। पिताजी भी खीझियाए रहते हैं..लगता है उनका कोयले का धंधा मंदा पड़ रहा है। घर से चलने लगा तो माँ कह रहीं थीं जल्दी लौट आना..पापा नाराज हैं।

विशालः झिंगन भी टोक रहा था। बड़ी मुश्किल से उसको बेवकूफ बना कर आ पाया हूँ।

आनंदः तुम दोनो तो फिर घर का रोना लेकर बैठ गए। कार्तिक पूर्णिमा भी नजदीक है। दुर्गाघाटी मुक्की भी होगी। कल श्रीकांत मिला था। कह रहा था, इस बार दीप जलाने जरूर आना।

विशालः हाँ...हमसे भी मिला था। हमने कह दिया जरूर आएंगे और मुक्की भी लड़ेंगे।

मुन्नाः दुर्गाघाटी मुक्की ! हाँ यार, दीप जलने के बाद यहाँ मुक्के बाजी होती है।

'दरअसल पंचगंगाघाट के बगल में दुर्गाघाट है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के दिन, दीप जल जाने के बाद मुक्की प्रतियोगिता का आयोजन धूमधाम से किया जाता था। काशी के पहलवान दूर-दूर के घाटों से अपना भाग्य आजमाने यहाँ आते थे। धीरे-धीरे आपसी वैमनस्व के चलते यह प्रतियोगिता एक औपचारिकता, भूली बिसरी यादें बन कर रह गईं हैं। काशीवासी बहुत कुछ भूल चुके मगर अब भी, जब कभी किसी को कोई एक जोरदार पंच रसीद करता है तो दुर्गाघाटी मुक्की की याद कौंध जाती है। यह मुक्केबाजी की विशेष कला थी जिसमें लड़ाके, पंच न मार कर बिना कुहनी मोड़े, दोनो हाथ हवा में जोर-जोर भाजते थे, जिसको एक भी मुक्की लग गई, समझो वह गया काम से।'

आनंदः अच्छा तो तुम लड़ोगे श्रीकांत से ?

विशालः क्या हुआ अब तो हम जासूस हैं ! हमें बहादुरी का हर वो काम करना चाहिए जो कोई दूसरा कर सकता है।

मुन्नाः अच्छा मेरे बहादुर जासूस। अब घर चलो। शाम हो रही है और मुझे आज जल्दी जाना है।

(जारी....)