30 August, 2010

यादें-4

यादें-1, यादें-2, यादें-3 से जारी..


....आनंद का स्कूल गलियों में बसा, लड़कियों का विद्यालय था जहाँ कक्षा दस तक ही पढा़ई होती थी लेकिन कक्षा एक से पाँच तक लड़के-लड़कियों को साथ-साथ शिक्षा दी जाती थी। अध्यापन का कार्य भी महिला शिक्षिकाएँ ही करती थीं। कक्षा में दोनों ओर बिछी होती एक लम्बी टाट-पट्टी और बीच का स्थान आने-जाने के लिए छुटा होता था। एक तरफ छात्राएँ तो दूसरी तरफ छात्र, छोटी-छोटी लकड़ी की डेस्क लिए, दो-दो की संख्या में एक के पीछे एक बैठते। किसी-किसी कक्षा में तो डेस्क भी पूरे नहीं होते। संकरी गलियों के बीच एक बड़े से तीन मंजिले मकान की हर मंजिल पर दो या तीन कक्षाएँ चलतीं। उसी में प्रधानाचार्या का कक्ष और स्कूल का ऑफिस। न कहीं खेल-कूद की व्यवस्था न खेल का मैदान। एक बड़े से पिंजड़े में कैद कर बटोरे गए असंख्य पंछियों के कलरव गान की तरह पूरा विद्यालय अधिकांश समय बच्चों की किलकारियों, कभी खत्म न होने वाले झगड़ों और अध्यापिकाओं की चीखों से गुंजायमान रहता। हर घंटी के बीच तो वो धमाल मचता कि शिक्षिकाएँ भी अपना माथा पीटती, एक-दूसरी सह-शिक्षिकाओं से शिकायत करने की मुद्रा में खड़ी दिखतीं।

...निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की आशा का केंद्र यह अर्द्द-सरकारी विद्यालय, जहाँ अपने सामर्थ्य के अनुसार, नौनिहालों को शिक्षित कर रहा था, वहीं आनंद, धीरे-धीरे यहां के वातावरण से परिचित हो रहा था। आजादी के पहले से ही हमारे देश में अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को शिक्षित करने और अपने सामर्थ्य के अनुसार शिक्षा लेने का प्रचलन है ! गरीब अपने ढंग से, अमीर अपने ढंग से और मध्यम वर्गीय परिवार अपने ढंग से अपने-अपने बच्चों को शिक्षित करते है। यह अलग बात है कि सभी माँ-बाप अपने बच्चों में अपना और अपने देश का सुनहरा भविष्य तलाशते हैं। आजादी से पहले 'देश' आगे, 'अपना' पीछे-पीछे चलता था, आजादी के बाद 'देश' और 'अपना' हमसफर हो गए लेकिन अचानक से कब 'अपना' आगे हुआ और 'देश' पीछे छूट गया यह तो विचारक ही तय कर सकते हैं मगर आजादी के बाद भी शिक्षा की दशा और दिशा दोनो ही पूर्व परम्परा की तरह नीयति बन हमारे सामने विद्यमान है । सभी के लिए शिक्षा और शिक्षा का समान अवसर अभी भी दूर की कौड़ी है।

....एक दिन, आनंद के पिता ने उसे यहाँ लाकर जबरदस्ती पटका और दुसरे दिन से, अपने से स्कूल जाना और घर वापस आना, उसके दैनिक-आवश्यक कर्म में शुमार हो गया। वह, प्रारंभ में तो दबाव में लेकिन धीरे-धीरे आराम से स्कूल जाने लगा। मध्यम वर्गीय परिवार, जहाँ बच्चे ईश्वर के वरदान के रूप में आसमान से टपकते हैं, माताएँ, सभी को भोजन करा कर और स्वच्छ वस्त्र पहनाकर अपने कर्तव्यों का पूर्ण होना मान लेतीं हैं। वहीं पिता, अपने बच्चों का दाखिला स्कूल में करवाकर, ड्रेस-फीस की व्यवस्था कर, समग्र पापों से मुक्त हो, बच्चों के सुनहरे भविष्य की कामनाएँ करते हैं। इससे अधिक करने की न तो उनकी हैसियत रहती है और न वे सोच ही सकते हैं। दैनिक आपदाएँ उनका पीछा कभी नहीं छोड़तीं और वे ईश्वर के प्रति अपना विश्वास भी कभी कम नहीं होने देते। बड़े का फेल हो जाना, मझले का पैर टूटना, छोटकी को मियांदी बुखार हो जाना ये सब तो रोज मर्रा के दारूण दूःख हैं जिनका सामना करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते हैं। हाँ, बिटिया का विवाह या बेटे की बेरोजगारी उनकी कमर तोड़ सकती है। मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे, घर-स्कूल के ऐसे वातावरण में उम्र से पहले समझदार हो जाते हैं।


.....स्कूल में दो छात्र आनंद के मित्र बन गए थे। दोनों महाराष्ट्रियन थे-मनोहर और श्री कांत। तीनों में आपस में खूब पटती थी। धीरे-धीरे तीनों परम मित्र बन गए। ऐसे मित्र जो खूब बोलते, खूब झगड़ते और खूब खेलते। झगड़ा प्रायः रोज होता था । शाम तक, किसी न किसी की, किसी न किसी से, कभी न बोलने की कसम जरूर हो जाती मगर सुबह फिर मिट्ठी हो जाती। मन्नू स्वास्थ में कमजोर, चिढ़चिढ़ा, दुबला-पतला लड़का था। झगड़ा करना, मार खा कर रोते-रोते घर जाना, घर जा कर माँ से अपने दोस्तों की शिकायत करना उसकी आदत थी। मन्नू की माँ लगभग रोज ही श्रीकांत के घर पहुंच जातीं और उसकी माँ से शिकायत करतीं कि आज तुम्हारे बेटे ने मेरे बेटे को खूब पीटा है, उसे कहाँ-कहाँ चोट लगी है आदि-आदि। झगड़ा काफी हास्यास्पद रहता। स्कूल में तकलियों से सूत कातना भी सिखाया जाता था। वही 'तकली' झगड़े में तीनों का मुख्य हथियार हुआ करती थी। प्रायः उनके चेहरों पर तकलियों की कारगुजारी लिखी होती थी। सबसे मजेदार बात यह थी कि जब किसी दूसरे लड़के से झगड़ा होता तो तीनों वैसे एक हो जाते जैसे युद्ध के समय दो धर्मों के नेता, हमेशा आपस में झगड़ते रहने वाली राजनीतिक पार्टियाँ एक हो जाया करती हैं ! क्या ही अच्छा होता कि ये सभी हमेशा प्रेम से रहते !


....इन रोज-रोज के झगड़ों की वजह से तीनों ही शिक्षिकाओं की नजरों में सबसे शरारती बच्चे घोषित हो चुके थे । इसका परिणाम यह होता कि पूरी कक्षा की गलतियों के लिए ये तीनों ही सजा पाते। यह वैसे ही था जैसे हर थाने की पुलिस, अपने इलाके के कुछ बदमाश, कुछ नरीह-असहाय लोगों के नामों की सूची अपने पास सुरक्षित रखती है ताकि वक्त-बे-वक्त इनका इस्तेमाल कर खुद को 'जेम्स बाण्ड' साबित किया जा सके और उच्चाधिकारियों से प्रशंसा प्राप्त की जा सके। इन तीन बच्चों के लिए भी उट्ठी-बैठी लगाने की सजा या कक्षा में सबके सामने मुर्गा बनना कोई मायने नहीं रखता था बल्कि उल्टा असर होता । जैसे पुलिस, दीन-हीन की पिटाई कर उन्हें पक्का अपराधी बना देती है वैसे ही ये बच्चे भी पूरी तरह ढीठ हो चुके थे। ये अपनी कलमों में रंग-बिरंगी स्याहियाँ भरे होते और जब बहेंजी कक्षा में चक्कर लगा रही होतीं ये पीछे से उनकी साड़ियाँ रंगने से भी बाज नहीं आते !


...कुछ ही समय के पश्चात दो शिक्षिकाएँ, बीच कक्षा में झुंझलाई खड़ी, आपस मे बातें करती पाई जातीं, "सुनो सरला, तुम्हारी साड़ी में ये स्याही किसने छिड़क दी है?" हाय राम! इतनी महंगी साड़ी ! मैं तो मर गई । ओ प्रेमाSS, "सुन तो ! तुम्हारी साड़ी भी रंगी हुई है !" अरे, हाँ ! अब मैं क्या करूँ ?अभी तो तीज के समय इनसे खूब झगड़ कर खरिदवाई थी! अरे देखो तोSS धागा भी टुटा हुआ है ! जरूर उन्हीं तीनों की शरारत है। चलो इस बार दुष्टों को ऐसी सजा देते हैं कि फिर कभी शरारत करने की हिम्मत ही नहीं होगी।


....दोनो शिक्षिकाओं को अकस्मात, एक साथ अपनी ओर आता देख, दुबक कर हंसते तीनों के चेहरों पर सियापा लोट जाता, सहम कर किताबों में मुँह गाड़ लेते मगर जान कहाँ बचनी थी ! कुछ ही देर बाद तीनों बीच कक्षा में खड़े, मुर्गे बने नजर आते। तीनों के चेहरों पर छलकती आसुओं की बूंदें, इन पर होने वाले जुर्म का एहसास करातीं। ये तब तक खड़े रहते जब तक कि छुट्टी की घंटी नहीं बज जाती। छुट्टी की घंटी बजते ही, बहेलिए के जाल से पिंजड़ा तोड़ कर भागते पंछियों की तरह, तीनों चीखते-चिल्लाते घर की ओर रवाना हो जाते। सारा दर्द एक पल में कपूर की तरह काफूर हो जाता। (जारी...)

27 August, 2010

यादें-3

यादें-1, यादें-2 से जारी...

गाँव से कब वापस आया याद नहीं. ...धुंधली यादें। यादें  अजीब होती  हैं। सुख भरी यादें, दुःख भरी यादें या वे यादें जो कुछ भी नहीं मात्र यादों के पर जिनसे जुड़ा़ है उसका बचपन, उसका यौवन, उसका जीवन।

गर्मियों के दिन, उमस भरी रातें, सुहानी सुबह, बनारस की गलियाँ, गलियों में बसा उसका छोटा सा घर और घर की छत.

...बच्चा गहरी नींद में सोया है । सुबह हो चुकी है। उसके भैया उसे जगाते हैं-"उठो, उठो।" वह कसमसा कर उठता है। उसके कानों में आवाज आती है- "तुम्हारी बहन आई है।"   बहन ....! चौंक जाता है इस शब्द से, उठकर बैठ जाता है पूरी तरह चौकन्ना ! .... कहाँ ?  भैया बताते हैं- "नीचे कमरे में।" सुनते ही दौड़ पड़ता है वह ..सभी सीढ़ियाँ एक साथ।
नीचे कमरे में खून ही खून बिखरा हुआ जमीन पर। उछलता लांघता बगल के कमरे में घुस जाता है जहाँ किसी को भी जाने की इजाजत नहीं..भैया को भी नहीं ! चौकी पर चढ़कर देखता है- दरवाजे के दूसरे कमरे में  जहाँ एक चौकी पर माँ लेटी हैं -बेसूध माँ। माँ के बगल में सुफेद कपड़ों में लिपटा हुआ एक बंडल। कौतुहल निगाहें खूब ध्यान से एकटक देखती ही रह जातीं हैं देर तक। असंख्य प्रश्न उठ खड़े होते हैं उसके जेहन में। क्या यही है मेरी बहन ? यह कहां से आ गई ? माँ को अचानक से क्या हुआ ?  खून कैसा है  ? क्य़ा मेरी माँ भयंकर बिमार है ?  इन सबसे अलग एक और प्रश्न- यह मेरी जगह क्यों लेटी है ? जीवन में ईर्ष्या के बीज क्या यूँ ही पड़ते हैं !

....'हटो यहाँ से ! बदमाश !"  पिता का कर्कश स्वर और सब कुछ गहरे धुंधलके  में लिपटा हुआ।

....बहन का आगमन उसके लिए काफी कष्टप्रद था। माँ की गोद छिन गई और माँ का दूध। कभी-कभी रात के अंधेरे में जब वह कोई स्वप्न देख कर जागता तो बहन को माँ की गोद में दुबका देख  मचल जाता। "कहाँ से आई यह ?"... सोचते-सोचते  गहरी नींद में सो जाता। आदमी के जीवन में कई प्रश्न ऐसे होते हैं जो उस वक्त समझ में नहीं आते जब हम उनको समझने का प्रयास कर रहे होते हैं। समय ! हाँ, समय ही देता है सुलझा हुआ जवाब। उसके पास होते हैं हर गूढ़ प्रश्नों के हल। आनंद अचम्भित था हर बात पर । उसके बाल मन के आंगन मे एक पल सुबह तो दूसरे ही  पल, शाम का आलम होता। चह-चह चहका करतीं अनगिन प्रश्न गौरैया  और अपने प्रश्नों के उत्तर न पा भूखी-प्यासी, फुर्र-फुर्र  उड़ जाया करतीं। मासूम आनंद, खूद से ही प्रश्न पर  प्रश्न करता  और जवाब के अभाव में कुंठित हो बड़ा होता जा रहा था। अब वह कुछ और बड़ा हो गया था। स्कूल जाने लगा था।  स्कूल से लौटता तो कंधे और भारी प्रतीत होते प्रश्नों के बोझ से। कोई नहीं दे पाता उसके प्रश्नों के हल। पिता या बड़े भाइयों से पूछने का साहस नहीं था. संग-साथियों से पूछता तो वे भी हंस पड़ते। धीरे-धीरे उसका  ह्रदय   एक विशाल घोंसले में परिवर्तित हो चुका था जिसमें फुदका करती ...अनगिन प्रश्न गौरैया। 

24 August, 2010

यादें-2.

वैसी ही एक और रात (यादें-1) सहसा कौंध जाती है यादों के सन्नाटे में.....!

....बच्चा अब कुछ बड़ा हो गया है। लगभग 4 या 5 बसंत पार कर लिए हैं उसने मगर अभी भी माँ का दूध पीने के लिए मचलता रहता है। माँ, बच्चे को दूध पिला रही हैं। उसके पिताजी, बड़े भैया उसी कमरे में सो रहे हैं। अचानक बच्चे को पिता की दहाड़ सुनाई पड़ती है..., " बंद करो ! फेंक दो गली में बदमाश को ! इतना बड़ा हो गया है फिर भी माँ का दूध पीता है !" बच्चा डर कर माँ का स्तन छोड़ देता है। सोचता है- मैं सबसे छोटा हूँ फिर भी पिताजी मुझे बड़ा क्यों कहते हैं ? कुछ देर शांत रहने के बाद फिर से माँ को कुरेदने लगता है। दूध पीने के लिए मचलने लगता है। माँ समझाती है, "तुम अब बड़े हो गए हो, अब तुम्हें दूध नहीं पीना चाहिए"। बच्चा नहीं मानता। पिता जी उठते हैं और माँ के कान में, कुछ धीरे-धीरे समझाते हैं। बच्चा समझ नहीं पाता। माँ उसे दूर सुला देती है पर वह नहीं मानता। माँ के आँचल में दुबक कर फिर से दूध पीना प्रारंभ कर देता है लेकिन यह क्या ! दूध का स्वाद तो बदल चुका है ! मीठा दूध अचानक कडुवा कैसे हो गया ! वह जोर-जोर से रोने लगता है. ( दरअसल माँ ने, पिता के कहने पर, दूध में, पान में लगाया जाने वाला कत्था लगा दिया था ) रोते-रोते बच्चा पिताजी को घूरता है, मानों कह रहा हो -सब इसी की बदमाशी है ! बच्चे के बर्दास्त करने की सीमा टूट जाती है . गुस्से में और जोर-जोर से दूध पीने लगता है . कुछ देर बाद दूध फिर से मीठा हो जाता है. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. दूध पीते-पीते खुशी-खुशी सो जाता है.

(बच्चा कुछ और बड़ा हो गया है। माँ, बड़े भाई के साथ गाँव आया है। कौन सा गाँव, कौन सा शहर उसे कुछ याद नहीं....)

.....एक झोपड़ी है। माँ, उसके बड़े भाई के साथ कहीं बाहर जा रही है। बैलगाड़ी घर के बाहर खड़ी है। वह जोर-जोर से रो रहा है, साथ जाने की जिद कर रहा है, माँ उसे समझा रही है लेकिन वह नहीं मान रहा। माँ उसे एक औरत की गोद में देकर, बैलगाड़ी में बैठकर चली जाती हैं। गाड़ी जा चुकी है। वह औरत उसे मनाने की कोशिश कर रही है, वह चुप ही नहीं हो रहा। अचानक उसे औरत के स्तन दिखालाई पड़ते हैं ! वह धीरे-धीरे, अपनी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से उसे मसलने लगता है, रोते-रोते उसमें मुँह लगा देता है। औरत हंस रही है। वह देख रहा है। दूध चूसने का प्रयत्न करता है पर स्तन से दूध ही नहीं आ रहे ! वह क्रोधित हो जाता है और जोर से निप्पल काट लेता है ! औरत चीख कर उसे जमीन पर पटक देती है। बच्चा डर कर भाग जाता है।

....गोधुली बेला है। बैलों के गले में बंधी घंट्टियों की धुन बच्चे के कानों में पड़ती है। वह दौड़ा-दौड़ा आता है । माँ उसे दहक कर गोदी में उठा लेती है। वह खुशी के मारे चीखता है। खुशी ! इससे बड़ी खुशी की कल्पना भी उसके जेहन में नहीं है। वह औरत माँ को उसकी शरारत हंसते और शिकायत भरे स्वरों में सुना रही है। वह माँ को वह जगह दिखाती है जहाँ बच्चे ने काटा था। बच्चा गौर से देखता है। नंगे-तने स्तन को... जिसके निप्पल के चारों ओर नीला घेरा सा बना है , कुछ याद कर माँ के स्तन को छूता है। कई प्रश्न उसके बाल मन में कौंध जाते हैं। माँ और इस औरत के स्तन में इतना अन्तर क्यों है ? माँ के स्तन से इतना मीठा दूध आता है और इसके स्तन से नहीं ! क्यों ? फिर सब कुछ भूल जाता है। उसे माँ का स्तन ही अधिक अच्छा लगता है क्योंकि इससे मीठा दूध आता है। वह उस औरत को देखकर दांत चिढ़ाता है, "ईं ...s...s..s...s...s.. ...!" माँ उसे बिगड़ती हैं। वह चुप हो जाता है।
(जारी....)

22 August, 2010

यादें-1.

यादें.. अनगिन यादें। समुंद्र में उठती लहरों सी, पहाड़ी झरनों सी, सुफेद फेनिल धारों सी, गंगा की शांत लहरों में चंदा के पदचापों सी. यादें.. अनगिन यादें.
यादें उन स्वप्नों की जो अनदेखे दिख गए थे अपने शैशव काल में, यादें उन संकल्पों की जो मंदिर की घट्टियों की गूँज बनकर रह गईं, यादें उन दिवास्वप्नों की जो यथार्त की धरातल पर कभी खरी नहीं उतरीं। यादें उन मित्रों की जो बहुत करीब से होकर गुजर गए। यादें ..अनगिन यादें.
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एक बच्चा गहरी नींद में सोया है। अचानक जोर से चीखता है..माँ s s s . सब जाग जाते हैं। पिता जी उठकर बत्ती जलाते हैं। बच्चा और जोर से चीखता है...नहीं s s s s और बरामदे की तरफ इशारा करते हुए आँखें बंद कर लेता है। उसके पिता जी बौखलाए हुए हैं। उसे गोद में उठाकर बरामदे की ओर ले जाते हैं, प्यार करते हैं, पूछते हैं, "क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं है, आँखें खोलो !" बच्चा बुरी तरह डरा हुआ है, आँखें नहीं खोलता, बस जोर-जोर से रो रहा है। पिताजी उसे बल्ब के पास ले जाते हैं। उसकी माँ पूछती हैं.. बताओ, क्या देखा ? सब समझ जाते हैं कि बच्चा कोई भयानक स्वप्न देखकर डर गया है। पिता जी झल्ला जाते हैं। उठाकर बच्चे को उसकी माँ की गोद में फेंक देते हैं। माँ तो माँ होती है। प्यार से दूध पिलाती है, पूछती है, आँख खोलने को कहती है। बच्चा डरते-डरते आँखें खोलता है, जोर से चीखता है...शे s s s र...फिर बेसूध हो जाता है.
(जारी....)