29 December, 2010

यादें-27 ( जासूसों का जासूस )



           कल की घटना, आज का ताजा समाचार और नन्हें जासूस। वे जितना सोचते बात उतनी उलझती जाती। जासूसी उपन्यासों की कहानियाँ और सच्ची जासूसी में कितना फर्क है वे अच्छी तरह जान चुके थे। उन्हें जासूसी का काम उनके हीरो राम-रहीम के कारनामो से कहीं कठिन प्रतीत होने लगा। भले ही उनके पास ईमानदार इंस्पेक्टर नहीं था, उनके घर का माहौल ऐसा नहीं था कि वे उन्हें अपने मन की बातें बता सकें, हथियार नहीं थे मगर एक चीज थी साहस। इसी साहस और जूझने की इच्छा शक्ति से प्रेरित होकर वे अपने किशोरावस्था के हसीन लम्हों का भरपूर आनंद ले रहे थे।    

           एक दिन तीनो पंचगंगा घाट से छोटू नाव वाले की कटर (छोटी नाव) लेकर खुद ही चलाते हुए, अपने पूर्वनिर्धारित योजना के अनुरूप पहँच गये अड़डा न0-1, दशास्वमेध घाट। अपने नाव को थोड़ा किनारे लगा कर जैसे ही वे घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे उन्हें सीढ़ियों पर बैठा विशाल का भाई झिंगन दिखाई दे गया। उसकी मुस्कान बड़ी रहस्यमई थी ! वे जैसे ही पास आए खिलखिला कर हँसने लगा,“अच्छा ! तो अड्डा न0-1 यह है ! चलो जासूसों के दो अड़डों का पता तो चल गया। अड़डा न0-1 दशास्वमेध घाट, अड़डा न0-2 कंपनी गार्डेन। बाकी के अड़डों का पता भी जल्दी ही चल जाएगा। झिंगन की नज़रों से कोई नहीं बच सकता हा..हा..हा...। उसकी हंसी सुन तीनो जल-भुन गये। आनंद मुन्ना से बोला, यह जरूर विशाल की बेवकूफी है। वरना इसे कैसे पता चला...! मुन्ना ने सफाई देनी चाही, हम तो यहाँ वैसे ही घूमने आए हैं। तब तक विशाल बोल पड़ा, नहीं, नहीं मैंने कुछ नहीं कहा। आनंद विशाल से उलझ पड़ा, तब इसे कैसे पता चला ?” उनके झगड़ों को सुनकर मुन्ना की सफाई धरी की धरी रह गई। झिंगन हंसते हुए कहने लगा, तुम लोग आपस में मत लड़ो। हम मूर्ख नहीं हैं। जबसे तुम लोगो ने मुझे अपने साथ खिलाने से मना कर दिया है तभी से मैं तुम लोगों की जासूसी कर रहा हूँ ! तुम लोग जब अड़डे बना रहे थे मैं दरवाजे से कान लगाए बाहर गली में खड़ा तुम लोगों की सब बातें सुना रहा था एक दिन तो तुम लोगों को शक भी हुआ था मगर मैं साफ बचकर निकल आया था ! याद करो। उसकी बातें सुनकर आनंद को सहसा याद आ गया कि उसे कब शक हुआ था। वह खिसियाकर चुप हो गया। झिंगन अपने पूरे लय में था....तुम लोग जब अपना संदेश कागज का गोला बनाकर बरामदे में फेंकते हो तो मैं पहले ही पढ़कर वैसे ही रख देता हूँ ! उस दिन मैं कंपनी गार्डेन भी गया था। उस गुंडे को देखकर तुम लोग कैसे भागे थे ! हम तो वहीं हँसते-हँसते लोट-पोट हुए जा रहे थे। वाह रे जासूसों इतना डर कर भी कोई जासूसी करता है ?” तीनो एक साथ बोले, तो क्या करते उनसे भिड़ जाते ? तुमने उनकी बातें सुनी थी !” झिंगन बोला, मैंने उनकी बातें नहीं सुनी। मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे लोग अक्सर ही बैठकर ताश-जूआ खेलते हैं, अंधेरा होते ही शराब पीते हैं। उनको देखकर भागने की क्या जरूरत थी ?” “बस-बस चुप करो। तुमने जब उनकी बातें सुनी ही नहीं तो ......मुन्ना ने बीच में ही विशाल को टोक कर इशारा किया कि चुप रहो। इसने जितना जान लिया है उतना ही बहुत है। फिर झिंगन से पूछा, तुमने और किसी से इसकी चर्चा तो नहीं की !” झिंगन: अब तक तो नहीं की मगर अब हमें अपने में शामिल नहीं किया तो मैं सबको बता दुंगा। मुन्ना ने समझाना चाहा, अभी तुम छोटे हो यही सोचकर.....झिंगनः बस दो साल। दो साल मैं विशाल से छोटा हूँ। अभी चाहो तो रेस करा लो ! कुश्ती लड़वा लो ! मैं इसे यहीं पटक सकता हूँ। विशाल इतना सुनते ही मारे गुस्से के झिंगन को मारने दौड़ पड़ा। मुन्ना ने तुरंत बीच बचाव कर दोनो को शांत किया फिर झिंगन से बोला,ठीक है। हम लोग तुम्हें अपने दल में शामिल कर लेंगे मगर तुम्हें हमारा कहना मानना होगा और एक लिखित और शारीरिक परीक्षा पास करनी होगी। हमारे संविधान में नये सदस्य को शामिल करने की यही शर्त है। झिंगनः मुझे मंजूर है। मुन्नाः तो कल सुबह मेरे घरआ जाना। दिन में 12 बजे। विशालः समझ गया ? अब भाग यहाँ से। विशाल की डांट सुनकर झिंगन अपने दोनो पैर पटकते हुए वहाँ से पलक झपकते ही ओझल हो गया मगर उनकी शर्मिंदगी बता रही थी कि वे झिंगन की बातों से कितने मर्माहत हैं। मुन्ना ने खिसियाकर कहा..साला ! असली जासूस तो यही निकला।विशाल तुरंत बोला, देखो गाली मत दो !” तीनो खिलखिलाकर हँसने लगे।    

           दशास्वमेध घाट का प्रचीन नाम रूद्रसरोवर था। स्कंध पुराण के अनुसार एक बार भगवान शंकर के आग्रह पर स्वयम् ब्रह्मा, वृद्ध साधन हीन ब्राह्मण के रूप में दिवोदास की राज्य सभा में गए। राजा की मदद से, बड़े ठाट-बाट से गंगा के तट पर दश अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ के पश्चात रूद्रसरोवर का नाम दशास्वमेध घाट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ ब्रह्मा ने दशाश्वमेधेश्वर शिवलिंग को भी स्थापित किया। वर्तमान में यह शिवलिंग शीतला देवी की मढ़ी में है। यह घाट काशी के मध्य भाग गोदौलिया से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में यहाँ सर्वाधिक भीड़ रहती है। नियमित गंगा आरती के आयोजन और प्रतिवर्ष होने वाले सुप्रसिद्ध गंगा महोत्सव ने भी इस घाट को पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु बना दिया है।

           झिंगन के जाने के बाद तीनो मित्र वहाँ काफी देर तक घूमते रहे। उन दिनो वर्तमान की तरह गंगा आरती तो नहीं होती थी लेकिन तीर्थयात्रियों, स्नानार्थियों की भीड़ हमेशा रहती थी। तीनो ने देखा कि कैसे घाट किनारे बैठे दलाल या मल्लाह यात्रियों को देखते ही उनके रंग, उनके वस्त्रों, सामानो का नाम लेकर उसे अपना बना रहे हैं।  इनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पर्धा है। जिसने जिसको पहले देखा वह उसका माल हो गया। दूर से आने वाला हर यात्री उनके लिए सिर्फ आसामी है। जिसे मौका मिला उसने उसे फंसाया। दर्शन पूजन के नाम पर, घुमाने के नाम पर, जबरदस्त ठगी यहाँ की आम बात थी। बनारसी ठग की लोकोक्ति प्रसिद्ध करने में इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ! इन दलालों से पंडो का सीधा संबंध होता होगा। जैसा जजमान वैसी पूजा। प्रसाद की गठरी बांधे खाली हाथ घर लौटते वक्त यात्री ठगा सा महसूस करता मगर मुख से  यही कह कर संतोष करता कि धन्य भाग जो दर्शन पायो। यही आस्था उन्हें काशी की धरती पर खींच लाती है।

           इधर-उधर निरर्थक भटकने के पश्चात वे शाम होते ही अपनी नाव लेकर वापस पंचगंगा घाट पहुँचे, जहाँ नाव वाला उनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। उन्हें देखते ही चीखना लगा, काली से नाव ले जाये के होई तs अपने बाहू के लेहले अहिया...! एक घंटा बदे मांग के ले गइला और सांझ ढले आवत हौवा ? तनने पढ़ाई-लिखाई कब कर ले हांय ! चला कल भिन्नए आवत हई तोहरे घरे। बताईब तोहरे बाबू जी से तोहार कारगुजारी।“ तीनो नाव वाले को देर तक मनाते, अरे नाहीं छोटू चचा..अब ऐसन गलती न होई। हमें माफ कर दा। ऊ दशास्वमेध घूमे में सांझ हो गयल।“ छोटू माझी फिर चीखता, अब घरे जैबा कि रात भर यहीं रहबा !” तीनो तेजी से अपने घाट की सीढ़ियाँ तय करते। यह वह जमाना था जब मात्र पचास पैसे या एक रूपैया पा कर भी नाव वाला उफ नहीं करता था बल्कि उसका पूरा ध्यान रहता था कि मोहल्ले के लड़के बिगड़ने न पायं। क्या मजाल कि आप जरा भी गलत करें और घर तक खबर न पहुँचे ! मल्लाहों, धोबियों, पेंटरों, राज मिस्त्री या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वालों को त्योहारों के मौकों पर दी जानी त्यौहारी या उनके आड़े वक्त दी जाने वाली छोटी-मोटी सहायता के बदले ये हमारे समाज का ताना-बाना कितनी मजबूती से थामे रहते थे इसकी कल्पना भी  वर्तमान के टूटते सामाजिक परिदृष्य में करना  मुश्किल है।
(जारी.....)

25 December, 2010

यादें-26( नन्हें जासूस और अपराधी )


         आनंद ने उचटी सी नज़र चारों तरफ डाली। फौव्वारे के पास मुन्ना और विशाल खड़े दिखाई दिये। शायद वे उसे ही ढ़ूंढ रहे थे। वह दौड़ते हुए उनके पास गया। तीनों आपस में लिपट कर दौड़ने लगे। हँसते-खिलखिलाते पास ही घास के मैदान पर कुछ देर कलाबाजियाँ खाने के बाद………

मुन्ना  तुम कहाँ थे ? 15 मिनट से हम तुम्हें ही तलाश रहे थे !”

आनंदः वहीं, तालाब के किनारे बैठकर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था।"

विशालः क्यों बे ! फिर हाथ-पैर बांधकर कूदने की योजना तो नहीं बना रहे थे ?

आनंदः ना बाबा ना । ऐसे अभ्यास, बगैर कुशल प्रशिक्षक के संभव नहीं हैं।

मुन्नाः अकल ठीकाने लगी ? देर आए दुरूस्त आए ! चलो, हर तरफ घूम कर देख लें। शायद कुछ हाथ लगे।

आनंदः तुम तो अचानक से जासूसों की भाषा बोलने लगे !”

विशालः “..और नहीं तो क्या ! हम किसी जासूस से कम हैं ?”

          तीनो मित्र बहुत देर तक बगीचे में घूमते रहे। दिन ढल चुका था। गार्डेन के सभी बल्ब जगमगा उठे थे। बच्चे-बूढ़ों से गार्डेन खाली हो चुका था। उन्होंने देखा एक स्थान पर जहाँ काफी अंधेरा था, कुछ लोग गोलबंदी कर बैठे हुए थे। वे चुपके से उनकी बातें सुनने लगे। वे शराब पी रहे थे और किसी सेठ को गाली दे रहे थे। सेठ का नाम ठीक से सुनाई नहीं दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये यहाँ से उठकर सीधे उसकी हत्या ही करने वाले हैं ! तीनो सहम गये। वहाँ से हटकर कुछ दूरी पर जाकर आपस में फुसफुसाने लगे…….

मुन्नाः हमको तो लगता है ये लोग जाकर किसी सेठ जी की हत्या करने वाले हैं।

विशालः हाँ, किस सेठ की, यह तो पता ही नहीं चला।

आनंदः हमें पुलिस को इसकी सूचना देनी चाहिए।

मुन्नाः चलो फिर सुनते हैं, हो सकता है वे गुस्से में किसी का नाम लें।

सभीः चलो

          वे फिर उसी स्थान पर छुपकर उन लोगों की कारगुजारी देखने लगते हैं। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि उन लोगों के बीच खाकी वर्दी पहने एक आदमी डंडा लिए बैठा है ! सब उसे वहाँ देखकर अचंभित होते हैं। अरे ! हम पुलिस के पास जा रहे थे और पुलिस तो यहाँ पहले से ही विराजमान है ! उन्होने सुना, खाकी वर्दी वाला एक प्लास्टिक के गिलास में दारू गटकते हुए सबसे कह रहा था, जा, चिंता मत करा, लेकिन हमार हिस्सा हमें मिल जाए के चाही। कौनो दोगलई जिन किए, नाहीं तs ई डंडा देखत हौवा नs पूरा घूसेड़ देब !“ सभी उठते हुए बोले, तनिको चिंता जिन किया मालिक। तोहार अs कप्तान साहब कs हिस्सा सही समय पर पहुँचा दियल जाई ! बस हम गरीबन पर दया-दृष्टि बनल रहे। इतना कहकर वह जैसे ही पलटा उसका संपूर्ण जिस्म मरकरी लाइट की दूधिया रोशनी में पूरी तरह नहा गया। उसके जिस्म को दूधिया प्रकाश में देखकर तीनो भीतर तक हिल गए !

           जिस्म क्या था चाँदनी रात में, बीच सड़क पर रेंगता जख्मी कोबरा ! होंठ का ऊपरी हिस्सा नाक तक कटा हुआ। कानो की हड्डियाँ कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों की तरह टूटी हुई। कटे होठों से झलकते भद्दे दांत जो अत्यधिक पान खाने से काले पड़ चुके थे। जंगली घास की तरह बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी-मूंछ। बड़ी-बड़ी लाल-लाल शराबी आँखें। स्याह चेहरा। भुजंग साथियों के साथ रावणी हंसी। कुल मिलाकर भयावह नाक-नक्श के इन गुंडों को देखकर तीनो नन्हें जासूसों की सांसें जहाँ की तहाँ अटक गईं। सिट्टी-पिट्टी गुम होना शायद इसी को कहते हैं। वे स्तब्ध हो उन्हें वहाँ से जाते देखते रहे। जब वे आँखों से ओझल हुए तो उनकी जान में जान आई। सभी वहीं बैठकर एक साथ बोल पड़े, हे भगवान ! अब हम किसको जा कर बताएँ कि सेठ के घर डकैती पड़ने वाली है ! दिल में दहकते अंगारे लिए तीनो जासूस व्यग्र कदमों से घर की ओर चल पड़े। घर के रास्ते में प्रसिद्ध भैरोनाथ का मंदिर पड़ता था। जिसे देखकर आनंद बोला, सुना है ये शहर कोतवाल हैं। शायद यही हमारी मदद करें। मुन्ना और विशान बिना कुछ बोले आनंद के साथ हो लिए। उन्होने भगवान से क्या कहा ये तो वही जाने लेकिन सांझ ढले अपने घरों के पास पहुँच कर यह कहते हुए जुदा हुए कि आज बहुत देर हो चुकी है अब इस विषय में कल बात होगी। कुछ न कर पाने की विवशता उनके चेहरों से साफ झलक रही थी।

            दूसरे दिन सुबह गंगा जी जाते वक्त आनंद ने देखा कि नंदू चाय वाले की दुकान पर कुछ ज्यादा ही भीड़ थी। उसने मंहगू साव के लड़के से पूछा, कहो, का बात हौ ? काहे इतना भींड़ जमल हो ?” उसने बिना कुछ बोले आज अखबार उसके सामने कर दिया। जिसके वाराणसी पृष्ठ पर मोटे हेडिंग से छपी खबर पढ़ते ही उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। झुग्गन सेठ के घर भीषण डकैती । भीतर लिखा था, कल रात 12 से 2 बजे के बीच झुग्गन सेठ के घर भींषण डकैती पड़ी। डाकुओं ने सेठ के बड़े पुत्र को गंभीर रूप से घायल कर दिया और लाखों के सोने-चाँदी के जेवर लूट लिये। समाचार देने तक डाकुओं के बारे में कोई जानकारी.......। खबर पढ़कर आनंद के हाथ से अखबार छूट गया। उसकी आँखों के सामने कंपनी बाग का दृष्य नाच गया। वह गंगा जी जाना भूल अपने दोस्तों को आज की खबर सुनाने दौड़ पड़ा।
(जारी......)        

10 December, 2010

यादें-25 (कंपनी बाग..देश की सरकारें..और नन्हां जासूस)


             बचपन जितना डरता है उतना ही साहस भी रखता है। वह कब किस बात पर डर जाय और कब हाथ पैर बांधकर नदी में कूद पड़े कहना मुश्किल है। जब तक यह ज्ञान न हो कि जला देगा, बच्चा अंगारे को भी अपनी नन्हीं उंगलियों से पकड़ने के लिए उद्यत रहता है। मगर जैसे ही उसे ज्ञान हो जाता है, वह उसे कभी छूने की हिम्मत नहीं करता। यह साहस ही है कि गंगा किनारे रहने वाले किशोर गंगा को तैरकर आसानी से पार कर लिया करते हैं, यह साहस ही है कि मात्र एक पतंग को लूटने के चक्कर में बनारस की तंग गलियों के बच्चे बंदर की तरह एक छत से दूसरे छत पर कूदते ही रहते हैं, दुर्भाग्य से जरा सा भी पैर फिसला तो गिरे कई मंजिल नीचे गली में। प्रायः हर साल इन गलियों में पतंगबाजी के चक्कर में बच्चों के छत से गिरकर मरने की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं मगर आज भी पतंगबाजी का शौक बदस्तूर जारी है।

             कोई दुर्घटना बच्चों को दहला सकती है, जख्म उन्हें रूला सकते हैं मगर यह नहीं हो सकता कि हमेशा के लिए उनकी इच्छाओं का, स्वप्नों का, साहस का गला घोट दे। यदि उनके हाथ-पैर सलामत हैं तो दौड़ेंगे ही, दिल है तो धड़केगा ही, मन है तो मचलेगा ही। वक्त उन्हें अधिक दिनो तक भय रूपी पिंजड़े में कैद करके नहीं रख सकता। यही आनंद के साथ भी हुआ। गंगा जी की घटना ने उसे हिला दिया मगर कुछ ही दिनो के पश्चात दुगने उत्साह और उमंग से उसने खुद को तैयार कर लिया। मुन्ना और विशाल की हिम्मत उसके घर जाने की नहीं थी मगर एक सुबह जब मुन्ना ने अपने कमरे में कागज की गेंद पाई तो उसे आश्चर्य से खोलकर देखने लगा। उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था, मिलोअड्डा न0-2 शाम चार बजे।  पढ़कर मुन्ना खुशी से उछल पड़ा। ऊपर देखा तो समझ गया कि आनंद ने बाहर गली से इस रोशनदान के सहारे अंदर फेंका होगा। वैसा ही एक कागज विशाल को अपने घर के बरामदे पर मिला। वह भी प्रसन्ना से नाचने लगा।
                
               बागों के महत्व को ईस्ट इंडिया कंपनी  ने बखूबी समझा था। उन्होंने  भारत के जिन शहरों में अपने फौजी अड्डे बनाये वहां हवाखोरी के लिए सब से पहले सघन बाग संरक्षित किये। ये बाग कंपनी बाग के नाम से आज भी जाने जाते हैं। बनारस में भी मैदागिन चौराहे के पास एक कम्पनी बाग है जिसमें अब भारतेंदु हरिश्चन्द्र उद्यान के नाम की एक पट्टिका लगी है। बाग में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की प्रतिमा है जिसका अनावरण 8 अप्रैल सन् 1988 को माननीय कृष्ण चन्द्र पंत, रक्षा मंत्री, भारत सरकार द्वारा हरिश्चन्द्र महाविद्यालय के छात्र संघ के प्रयासों से किया गया है। इसके अलावा बाग में एक सूख चुका फौव्वारा, तीन छोटे-छोटे घास के मैदान हैं जिसके चारों तरफ ताड़ के वृक्ष लगे हैं। चारों तरफ मैदान को विभक्त करती पक्की सड़क और दूसरे छोर पर एक बड़ा सा तालाब है। तालाब के भी चारों तरफ पक्की सड़क तथा तीन ओर पक्के घाट बने हैं। बाग के पूर्व दिशा की तरफ जो घाट है उसके इर्द-गिर्द जगह-जगह बैठकर, स्थानीय जनता ताश की महफिल भी जमाती है।

              बात सन् 1976 की है । आपातकाल के दंश से अनभिज्ञ आनंद, स्कूल से नजदीक होने के कारण, इसी कम्पनी बाग में भागकर तितलियाँ पकड़ने और तरह-तरह की शैतानियाँ करने में मस्त रहता था। आज की तुलना में बाग का दृष्य भी दूसरा ही था। आज जहाँ एक कोने में जल कल विभाग, दूसरे कोने में बिजली विभाग का कब्जा है, तब यह सब नहीं था। बाग थोड़ा बड़ा और फूल-पौधों से हरा-भरा दिखता था। फौव्वारे में पानी था जिसमें शाम के समय रंगीन बल्ब की रोशनी में इसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। तालाब में मछलियाँ थीं। कहीं-कहीं कमल के फूल भी खिले दिखलाई पड़ते थे। इस क्षेत्र के लोगों के लिए ले दे कर यही जगह थी जहाँ वे अपनी शामें बिता दिया करते थे। आज जहाँ ताश की अड़ी जमती है वहीं देश के भविष्य और आपातकाल पर बुजुर्ग गंभीर बहस में व्यस्त रहते थे।
            
             आज आनंद नहीं, नन्हां जासूस स्कूल से सीधे अपने अड्डे पर साड़े तीन बजे से, तालाब के पश्चिमी घाट पर बैठा, अपने दो साथियों की बाट जोह रहा था। अभी गार्डेन में कोई खास चहल-पहल नहीं थी। उसने देखा, जहाँ वह बैठा हुआ है उसके कुछ ही दूरी पर घाट के दोनो ओर बने चबूतरों में से एक चबूतरे की सीढ़ी पर, तालाब के किनारे, एक वृद्ध सज्जन बैठे हुए हैं। उनके बायें हाथ में एक प्लास्टिक की थैली है जिसमें आंटे की नन्हीं-नन्हीं गोलियाँ रखी हैं और दाहिने हाथ से वह एक-एक कर इन गोलियों को निकालकर तालाब के पानी में फेंकते जा रहे हैं। एक मछली आती है, उनके द्वारा फेंकी गई गोली खाती है, ठहरे पानी से कुछ बुल्ले उठते हैं, कुछ लहरियाँ बनती हैं फिर कुछ देर बाद दूसरी गोली....और यह क्रम बदस्तूर जारी रहता है। तालाब के पूर्वी घाट पर जो एकदम सूनसान था, एक मछुआरा पानी में बंसी डाले बैठा हुआ है। एक मछली आती है, कांटे में फंसती है, वह झटके से बंसी खींचता है। कांटे से बंधी मछली तड़फड़ाती बाहर चली आती है। वह कांटे से मछली को अलग करता है फिर बंसी पानी में डालकर पहले की तरह बैठ जाता है।

             आनंद को लगा कि मछुआरा मन ही मन वृद्ध को धन्यवाद दे रहा होगा कि यह मूर्ख उसकी मछली को खिला-खिला कर मोटा बना रहा है ! एक तरफ तो धर्मात्मा उसके शिकार को मोटा बना रहे हैं दूसरी तरफ बेचारी मछलियों का भ्रम भी बढ़ा रहे हैं । जो मछलियाँ वृद्ध का आंटा खा कर उस किनारे जाती होंगी वे क्या जान पायेंगी कि अबकी बार जो चारा उसे पानी में दिखलाई पड़ रहा है वह प्रेम से खिलाए जाने वाला खुराक नहीं, गले में अटकने वाला कांटा है ! बिना सोचे समझे किया जाने वाला पुण्य भी पाप में बदल जाता है। भोले भाले प्राणियों पर दया भी सोच समझ कर करनी चाहिए। हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई मछुआरा उसके दान का अनुचित लाभ तो नहीं उठा रहा है। प्रायः देश की सरकारें भी यही गलती कर बैठती हैं।

             आनंद से न रहा गया। वृद्ध के पास जा कर पूछा, बाबू जी, यह आप क्या कर रहे हैं ?” वे बोले, देखते नहीं, मछलियों को चारा खिला रहा हूँ। इससे बड़ा पुन्य मिलता है। आनंदः वह (मछुआरे को दिखा कर) जो बंसी लटकाए मछली फंसा रहा है, वह क्या कर रहा है ?” वृद्धः वह पापी है। फल भोगेगा। आनंदः क्षमा कीजिए बाबू जी, आप भी तो इन मछलियों को चारा खिलाकर उसकी मदद ही कर रहे हैं। वृद्धः वह कैसे ? आनंद: वह ऐसे बाबू जी कि आप द्वारा खिलाया गया चारा उसके शिकार को ही मोटा-ताजा बना रहा है। वृद्ध एक पल के ठिठका फिर आनंद को घूरते हुए क्रोधित हो बोला, तू नहीं समझेगा ! भाग यहाँ से ! तेरी उम्र खेलने-कूदने की है, जा अपने खेल में ध्यान लगा। आनंद कुछ न बोला। चुपचाप लौटकर अपनी जगह बैठ गया मगर उसने देखा कि कुछ देर बाद, वृद्ध ने झल्लाकर थैली की सारी गोलियाँ एक साथ पानी में फेंक दीं और घृणा पूर्वक आनंद को देखता हुआ वहाँ से उठकर चला गया। आनंद ने दोनो कंधे उचकाते हुए मन ही मन सोचा, सच कितना कडुवा होता है ! प्रायः देश के नेता मीडिया की सच बयानी पर यूँ ही झल्ला जाया करते हैं।
(जारी.....)

28 November, 2010

यादें-24 (दुर्गाघाटी मुक्की)

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              कार्तिक पूर्णिमा के दिन इधर दीप जलते उधर दुर्गाघाटी मुक्की शुरू हो जाती । होली की मुक्केबाजी का जो कसर शेष रह जाता उसे आज के ही दिन चुकाया जाता। दरअसल होता यह था कि होली के दिन मोहल्ले के छोरे, रंग खेल कर दुर्गाघाट स्थित राम मंदिर के सामने चौड़ी गली पर जमा होते और वहीं ताल ठोंक कर इक-दूजे को मुक्केबाजी का निमंत्रण देते। मोहल्ले के बूढ़े-बड़े निर्णायक की भूमिका निभाते और जम कर मुक्केबाजी होती। होते-होते बात अक्सर बिगड़ भी जाती। अपने छोटे भाईयों को पिटता देख बड़े भी शामिल हो जाते। बड़ों के शामिल होने का मतलब बड़ी लड़ाई का दावत। प्रायः ऐसा भी होता कि ये भांग या शराब के नशे में चूर एक-दूसरे से इतना उलझ जाते कि मरने मारने पर आमादा हो जाते। होते-होते बात इनके घरों  तक पहुँचती। घर के बुजुर्ग मैदान में उतर कर अपने-अपने पक्ष को डांट-डपट कर शांत करते...कमजोर पक्ष अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर के सम्मुख नतमस्तक होता । कोई कहता, होली कत्यौहार हौ मालिक ! खेल-खेल में त्यौहार कs सत्यानाश मत करा ! ई त प्रेम कs त्यौहार हौ ! चला गले मिला। दूसरा चीखता, अबे चुप रे मादर.....! अब बोलले तs यहीं काट के फेंक देब ! देखत ना हौए, गुरूजी कहत हौवन..! भाग रे भोनुआं...भाग रे बचनुआँ...छोटे तनिक समझाव सारे के...!”  इन सब धमाचौकड़ी, गाली-गलौज, मान मनौव्वल के बाद किसी तरह झगड़ा शांत होता लेकिन जो कसक मन में दबी रह जाती, वह कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्ण करने का संकल्प, हारा हुआ पक्ष मन में लिए रहता। इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के दिन जो मुक्केबाजी होती, उसमें हारा हुआ पक्ष दूसरे को होली के दिन देख लेने की धमकी देता। कालांतर में एक भीषण घटना घटी जिसके कारण आपस में वैमनस्व इतना बढ़ गया कि चोट खाकर भी हँसते हुए पान घुलाकर गले मिलने की दुर्गाघाटी मुक्की की पुरानी स्वस्थ परंपरा पूर्णतया विलुप्त हो गई।

             आज कार्तिक पूर्णिमा है। सुबह से गंगा-स्नान करने वालों की भीड़ से गंगा के घाट गुँजायमान हैं। संपूर्ण बिंदु तीर्थ और आस पास के मोहल्लों का उत्साह देखते ही बनता है। एक ओर घाटों की साफ-सफाई का कार्य जोरों पर है तो दूसरी ओर दुर्गाघाटी मुक्की की तैयारी। दुर्गाघाट की ऊँची खड़ी सीढ़ी पर जहाँ दिन ढले देव दीपावली मनाने की तैयारी चल रही है तो मोहल्ले-मोहल्ले में हम वय छोरे, घूम-घूम कर इक-दूजे को ताल ठोंक, मुक्केबाजी का चैंलेज देते फिर रहे हैं।

             दो-चार दिन में आनंद पूर्णतया ठीक हो गया था मगर गंगा जी में डूबने की घटना ने पूरी जासूस मंडली के होश-ठिकाने ला दिए थे। कोई कहीं पिटाया तो कोई कहीं। घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। हालांकि आनंद ने पूरा इल्जाम अपने सर पर ही लिया मगर सभी समझ गए कि यह इन तीनों बच्चों की बेवकूफियों का ही परिणाम था। घर से बाहर निकलते ही तीनो में से किसी को भी देख, सब ऐसे हंसते मानो इनसे बड़ा बेवकूफ धरती पर दूसरा नहीं है। कोई कहता, का गुरू ? चला हमहूँ के सिखाय दा.. हाथ-पैर बांध के कैसे तैरल जाला !” तो कोई कहता, बच गईला बच्चू नाहीं तs गैले रहला !” घर से गंगा जी नहाने की सख्त मनाहीं हो गई सो अलग। तीनो मारे भय के एक दूसरे से मिलने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे।

             विशाल और श्रीकांत के बीच होने वाले संभावित मुक्केबाजी की उत्सुकता आनंद और मुन्ना को भी घाट तक खींच लाई थी। गोधूली बेला बीत चुकी थी। चँद्राकार बनारस की घाटों में पंचगंगा घाट का हजारा दीपस्तंभ और दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर जल रहे दीप, अलग ही आभा बिखेर रहे थे। चम-चम चाँदनी से नहाई गंगा की लहरें और ठीक ऊपर आकाश में टंगे पूर्ण चन्द्र को देख कर यूँ प्रतीत हो रहा था मानो भगवान शिव स्वयम् देवताओं के साथ उपश्थित हो इस दीप पर्व और मुक्केबाजी प्रतियोगिता का आनंद ले रहे हैं। किशोरों में दीप जलाने की होड़ लगी थी। श्रीकांत के पिता और मराठी समाज की दीप जलाने में महति भूमिका होती थी। श्रीकांत ऊपर खड़ा पिता के जाने की प्रतीक्षा कर रहा था तो नीचे से विशाल बार-बार श्रीकांत को मैदान में उतरने के लिए ताल ठोंक रहा था। आनंद और मुन्ना कभी सीढ़ी के सामने चौड़े पत्थर के घाट पर हो रहे धमाल को देखते तो कभी श्रीकांत की विवशता का आनंद लेते।

             कभी-कभी बड़ा ही रोचक दृश्य उपस्थित हो जाता। कोई सीकिया पहलवान किसी मोटे पहलवान को ताल ठोंककर चुनौती दे आता...! मोटा ऐसे गुर्राता मानो कोई हाथी चूहे को सूंड़ में लपेटकर सौ योजन दूर फेंक देना चाहता हो ! भीड़ चीखती, हाँ..हाँ होई...! का भयल हौ...? तू आवा न…! हाँ रे बेटा, चल आगे ! आवा पहलवान...!” कोई चीखता, हड्डी पे कबड्डी होई ताक धिना धिन..।पूरी भीड़ अचानक से गोल घेरा बना कर उछलने-कूदने लगती। चूहा जब तक पकड़ में न आता, गोल-गोल खूब घूम कर ताल ठोंकता मगर जैसे ही हत्थे चढ़ जाता, मोटा पहलवान उसे दोनो हाथों से ऊपर उठाकर चारों तरफ घूमाता... यहीं फर्श पर पटक देब सारे के...जिनगी में केहू से कब्बो मुक्की लड़े कs नाम न लेई...!” भीड़ फिर चीखती.. अरे रे...! जाय दा सरदार...! मर जाई बेचारा...! तोहें फेके कs मन हौ तs फेंक दs सारे के....s.s.. मढ़ी से, सब पाप धुल जाई। मोटा पहलवान हँसता हुआ सीकिया पहलवान को मढ़ी से पानी में फेक देता। सभी नारा लगाते हर हर महादेव।”  कभी कोई मुक्की खा कर अपने दांत तुड़वाता ..फर्श पर खून की बूंदें गिराता...देख लेने की धमकी देता घर की राह पकड़ता।

             ऐसी रोचक घटनाओं के बीच छोटे-छोटे किशोर भी लड़वाये जाते। जैसे ही श्रीकांत के पिता जी घर गए, विशाल और श्रीकांत ने भी अपने-अपने हाथ आजमाए...। बात आगे बढ़ती इससे पहले ही बड़े पहलवानो ने दोनो को गले मिलवाया, एक-एक माला पहनाई और दोनो हँसते हुए अपने साथियों के साथ घर की ओर चल पड़े।
(जारी....)

20 November, 2010

यादें-23 ( हमें क्या पता हम तो उधर तैर रहे थे…! )



            दूसरे दिन, मध्याह्न 12 बजे, अपने निर्धारित योजना को मूर्तरूप देने एकत्र हुए...तीनो बाल जासूस। छुट्टी का दिन होने के कारण पंचगंगा घाट पर साफा-पानी लगाने वालों और नित्य स्नान करने वालों की भीड़-भाड़ थी। थोड़ी देर की तैराकी, श्वांस रोककर उल्टा लेटने के अभ्यास के बाद तीनो की हिम्मत बढ़ी । उन्हें लगा कि डुबकी मारकर बंधन खोलना बहुत कठिन नहीं है। विशाल ने हँसते हुए आनंद से पूछा, क्यों...! बांधे हाथ-पैर ?”  आनंद तो पहले से ही तैयार था।  बोला, हाँ, हाँ, देखो मैं कितनी आसानी से निकल आता हूँ !” फिर क्या था ! आनंद तख्ते पर जा लेटा, मुन्ना ने उसके पैर गमछे से कसकर बांध दिया और विशाल ने हाथ। देखते ही देखते आनंद घाट पर पानी की धरातल पर बधे, काठ के तख्ते पर जैसे तैसे खड़ा हो, दोनो पंजों के बल उछल कर, सर के बल गहरे पानी में छपाक से कूद गया।

           इस घाट पर ऊँची-ऊँची मढ़ियाँ हैं। एक दो सीढ़ी के बाद ही गहराई की थाह पाना कठिन है। जो बच्चे तैरना नहीं जानते, वे इस घाट पर नहीं आते मगर जो तैरना जानते हैं, उनके लिए यह घाट स्वर्ग है। ऊँची मढ़ी पर चढ़कर छपाक से पानी में हेडर साधना और पानी के भीतर ही भीतर तैर कर कलाबाजी दिखाते हुए दूर किसी कोने से हँसते हुए निकलकर, साथियों को हैरत में डालना, गंगा में तैरने वाले इन किशोरों के लिए आम बात है। भीड़-भाड़ होने के बावजूद किसी का भी ध्यान बच्चों की शैतानी पर नहीं गया। यहाँ के लोगों के लिए बच्चों का यह खेल माँ की गोद में दुधमुंहे बच्चों की उछल-कूद के सिवा कुछ अधिक मायने नहीं रखता ।

           आज विशेष बात थी । आज एक जासूस कुछ खास करने के इरादे से कूदा था। दोनो मित्र सांस रोके आनंद के निकलने का इंतजार कर रहे थे। चौकन्ने हो, कभी इधर देखते तो कभी उधर। उन्हें लगता कि कहीं चुपके सा बाहर निकलकर हँस तो नहीं रहा है। मगर हाय ! एक दो बार ऊपर आने के बाद आनंद लगभग पाँच मिनट तक बाहर नहीं निकला तो दोनो घबरा कर चीखने-चिल्लाने लगे... आनंद डूब गया..!..आनंद डूब गया..!...बचाओ.s..s..बचाओ..s..s..!” फिर तो घाट पर कोहराम मच गया...लोग दौड़े...मल्लाह दौड़े ..मल्लाहों के बच्चे दौड़े ...असंख्य प्रश्न...कब…? कैसे…? कहाँ…? ....दोनो के एक ही उत्तर ...यहीं से कूदा था ...! हाथ-पैर बांधकर..! पाँच मिनट हो गया नहीं निकला !” दूसरी बात होती तो मल्लाह भी समझते कि अभी निकल आएगा लेकिन जब सुना कि हाथ-पैर बांधकर कूदा है तो एक-एक कर सभी पानी में छलांग लगाने लगे। कुछ ही पल में जब एक मल्लाह ने आनंद के निष्प्राण से शरीर को नदी से बाहर निकाला तो सभी के चेहरे भय की आशंका से हदसे हुए थे ! आनंद की हालत देखने लायक थी। हाथ-पैर वैसे ही बंधे थे...पेट गुब्बारे की तरह फूला हुआ था...! आँखें बंद...! पहली नज़र में उसे देख कर कोई भी यही समझता कि किसी ने बांध कर नदी में फेंक दिया है मरने के लिए। तभी कोई चीखा..सांस चलत हौ...! पेट के बल लेटाओ..! पीठ  दबाओ..! जिस मल्लाह ने उसे बाहर निकाला, वह तो हीरो था..। जोर से चीखा..वही तs करे जात हई मालिक...! अब सबै बुद्धि बतावे बदे कपार पर मत चढ़ा..! हमे पता हौ कि का करे के हौ। एक पल देर किए बिना उसने आनंद को पेट के बल लिटाया और धीरे-धीरे कुशल वैद्य की तरह पीठ दबाने लगा। .... कुछ ही पल में आनंद के मुँह से ढेर सारा पानी निकलने लगा...

             इधर, मुन्ना-विशाल से लोगों ने पूछना शुरू किया तो मारे डर के उन्होने यही कहा,” हमें का पता…! हम तो उधर तैर रहे थे...! हाँ, हमने उसे हाथ-पैर बांधकर नदी में कूदते देखा था ! तभी तो चिल्लाए..कि कहीं डूब न जाय । कोई बड़बड़ाया..पैर तs मान ला अपने से बंधले होई..लेकिन हाथ कैसे बांध लेई..? जरूर दाल में कुछ काला हौ ! मुन्ना और विशाल ने सुना तो डर के मारे घिघ्घी बंध गई ! दोनो के पास भगवान से दुआ मागने के सिवा कोई चारा नहीं था। उनका मन कर रहा था कि वहाँ से भाग जांय लेकिन आनंद की हालत देख कर वहाँ से हटने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया कि थोड़ी ही देर में आनंद को होश आ गया...होश में आने के बाद भी उसकी हालत कुछ बोलने लायक नहीं थी। उसने इतना ही कहा...हम.. हाथ-पैर बांधकर... नदी में... तैरने का अभ्यास.. ” … फिर बेहोशी के आलम में चला गया। सभी उसकी बात सुनकर हँसने और कोसने लगे...ससुर के नाती..चला तोहार किस्मत अच्छा रहल जौन बच गइला... नाहीं तs अपनी ओर से मरे कs पूरा इंतजाम कैले ही रहला। तब तक कोई चीखा..राहे दs अभहिन एकर हालत ठीक ना हौ...एहके घर पहुंचा द.s..सभी एक श्वर में बोले..हाँ..हाँ..घरे पहुँचा दs..तब तक आनंद के डूबने की खबर उसके घर तक पहुँच चुकी थी ...उसके सभी भाई दौड़े-दौड़े घाट पर आ चुके थे। मल्लाह ने आनंद को उठाकर वीरू भैया कि गोद में देते हुए कहा...ला..! संभाला..! आज तs गैले रहलन..। आनंद के भैया बिना कुछ बोले आनंद को लिए घर की ओर दौड़े..

             भीड़ छट गई तो मुन्ना-विशाल के भी जान में जान आई। मुन्ना ने विशाल से कहा..हम तो पहले ही कह रहे थे कि यह पागलपन है...हमारी बात तो तुम लोग सुनते ही नहीं...। अपने तो मरता ही हमे भी मरवाने का पूरा इंतजाम कर दिया था। विशाल बोला..यह कौन जानता था कि डूब ही जाएगा...हम लोगों को भी साथ ही साथ डुबकी लगानी चाहिए थी..! मुन्ना झल्लाकर बोला, अच्छा…! अभी तुमको भी जानना शेष है...! जाओ तुम भी कूद मरो...! साथ-साथ डुबकी लगानी चाहिए थी ! अभी खतरा टला नहीं है। तुमने लोगों की बातें नहीं सुनी कह रहे थे...पैर तो बांध लिया मगर हाथ कैसे अपने से बांध सकता है!’ उनका इशारा हमी लोगों पर था। मुन्ना की बात सुनकर विशाल का भय और भी बढ़ गया। दोनो घर जाने के बजाय वहीं बैठकर देर तक बचने का उपाय सोचते रहे । विशाल ने कहा..कहीं आनंद ने हमारा नाम ले लिया तो…?” मुन्ना के आँखों के सामने साइकिल की सवारी में हुई दुर्घटना का चित्र कौंध गया । उसने पूरे विश्वास के साथ उत्तर दिया..आनंद बेवकूफी तो कर सकता है मगर लाख पिटने के बाद भी हमारा नाम नहीं लेगा। मुन्ना की बात सुन विशाल ने संतोष की सांस ली। अंत में यही निष्कर्ष निकला कि सबकुछ आनंद के बताने पर ही निर्भर करता है। यदि आनंद ने हमारा नाम नहीं लिया तो कोई हमे कुछ नहीं कहेगा। हम तो बस यही उत्तर देंगे कि हमें क्या पता हम तो उधर तैर रहे थे…!
(जारी....)